ऊतक की सरंचना, प्रकार व कार्य
ऊतक की सरंचना, प्रकार व कार्य
- मानव एक बहुकोशीय प्राणी (Multicellular organism ) है, जिसमें कोशिकाएँ रचना तथा कार्य में एक दूसरे से भिन्न होती हैं । एक प्रकार की कोशिकाएँ, एक ही प्रकार का कार्य करती हैं और एक ही वर्ग के ऊतक जैसे- अस्थि, उपास्थि, पेशी आदि का निर्माण करती हैं।
- संक्षेप में 'समान रचना तथा समान कार्यों वाली कोशिकाओं के समूह को ऊतक कहते हैं।' प्रत्येक ऊतक का अपना विशिष्ट (Specialised) कार्य होता है। ऊतकों का निर्माण करते समय कोशिकाएँ आपस में एक दूसरे से एक विशेष अन्तराकोशिकी पदार्थ (Intercellular substance) के द्वारा जुड़ी और सम्बन्धित रहती हैं। बहुत से ऊतक मिलकर शरीर के अंगों (Organs), जैसे- आमाशय, गुर्दे, यकृत, मस्तिष्क आदि का निर्माण करते हैं। प्रत्येक अंग का भी अपना विशिष्ट कार्य होता है। विभिन्न अंग परस्पर मिलकर किसी संस्थान करता है, जैसे- नाक, स्वरयन्त्र (Larynx), श्वास प्रणाल (Trachea ) एवं फेफड़े मिलकर श्वसन संस्थान (तन्त्र) का निर्माण करते हैं, जो कि शरीर एवं वायुमण्डल के बीच ऑक्सीजन एवं कार्बन डाइऑक्साइड का आदान-प्रदान करता है।
ऊतक के प्रकार एवं संरचना
मानव शरीर का निर्माण निम्नलिखित प्रारम्भिक ऊतकों (Elementary tissues) के मिलने से होता है-
1. उपकला ऊतक ( Epithelial tissue)
2. संयोजी ऊतक ( Connective tissue)
3. पेशीय ऊतक (Muscular tissue)
4. तन्त्रिका ऊतक (Nervous tissue)
1) उपकला ऊतक (Epithelial tissue)
- उपकला ऊतक या एपीथीलियम विभिन्न आकार की कोशिकाओं से बनने वाला वह ऊतक है जो शरीर की सतह जैसे त्वचा तथा खोखले अंगों-आमाशय, गर्भाशय गुहाओं, रक्त वाहिनियों आदि की भीतरी सतह को आच्छादित किए रहते हैं। उपकला ऊतक अंगों की सीमा, स्वतन्त्र सतहें ( Free surfaces) तथा अस्तर कला ( Lining membrane) को बनाते हैं। समस्त एपीथिलियल कोशिकाएँ परस्पर सटी होती हैं। तथा इन्हे जोड़ने का काम म्यूकोप्रोटीन पदार्थ के द्वारा होता है। प्रायः इस प्रकार के ऊतकों में एक आधार- कला (बेसमेन्ट मेम्ब्रेन) रहती है, जिस पर कोशिकाएँ अवस्थित रहती हैं।
कोशिकाओं की परतों एवं आकार के अनुसार उपकला ऊतक मुख्य रूप से निम्न दो प्रकार के होते हैं-
(A) सरल उपकला (Simple epithelium)
1. शल्की उपकला (Pavement or squamous epithelium
2. घनाकार उपकला (Cuboidal epithelium)
3. स्तम्भाकार उपकला (Columnar epithelium)
4. रोमक उपकला (Ciliated epithelium)
5. ग्रथिल उपकला (Glandular epithelium)
(B) मिश्रित उपकला
1. अन्तरवर्ती (Transitional )
2. श्रृंगी स्तरित शल्की उपकला (Stratified squamous cornified)
3. अश्रृंगी स्तरित शल्की उपकला (Stratified squamous non-cornified)
4. स्तरित स्तम्भाकार उपकला (Stratified columnar)
5. रोमक स्तरित स्तम्भाकार उपकला (Stratified columnar ciliated )
(A) सरल उपकला (Simple epithelium)
सरल उपकला में कोशिकाओं के केवल एक परत होती है तथा सामान्यतः अवशोषी या स्त्रावी सतहों पर पायी जाती है। यह उपकला बहुत ही नाजुक होती है तथा ऐसे स्थानों पर पायी जाती है जहाँ बहुत कम टूट-फूट होती है। यह निम्न पाँच प्रकार की होती है जिनके नाम कोशिकाओं के आकार तथा कार्यों के अनुसार भिन्न होते हैं।-
1. शल्की उपकला (Pavement or Squamous epithelium)
- यह वृहदाकार चपटी कोशिकाओं की केवल एक परत की बनी होती हैं तथा समस्त कोशिकाओं की केवल एक परत की बनी होती है तथा समस्त कोशिकाएँ एक आधार कला (Basement_membrane) पर अवस्थित रहती है। न्यूक्लियस सामान्यतः कोशिका के केन्द्र में होता है। इस प्रकार की उपकला फेफड़ों के वायुकोष्ठों (alveoli), सीरमी कलाओं जैसे- पेरीटोनियम, प्लूरा आदि, हृदय के आभ्यन्तरिक स्तर, रक्तवाहिनियों के अन्तःस्तर, कॉर्निया, टिम्पेनिक मेम्ब्रेन आदि में रहती है, फेफड़े, सीरमी कलाओं, रक्त वाहिनियों एवं लसीका वाहिनियों में इसे अन्तःकला (endothelium) के नाम से भी जाना जाता है। हृदय में इसे अतः हृकला (endocardium) कहते हैं। इस उपकला का प्रमुख कार्य 'रक्षात्मक' है। साथ ही गैसों एवं तरलों का आदान-प्रदान भी इसके द्वारा होता रहता है.
2. घनाकार उपकला (Cuboidal epithelium) -
- इसकी कोशिकाएँ घनाकार होती हैं तथा एक ही परत में रहती हैं एवं आधार कला पर अवस्थित रहती हैं। इस प्रकार की उपकला सूक्ष्म श्वसन नलिकाओं ( Small terminal respiratory bronchioles), पाचन ग्रन्थियों के आभ्यन्तर में लार ग्रन्थियों (Salivary glands), थाइरॉयड तथा डिम्ब ग्रन्थि की सतह आदि में पायी जाती हैं। इस प्रकार की उपकला अंगों की रक्षा करती है तथा कहीं-कहीं स्त्रावण (Secretion), भरण (Storage) आदि का भी कार्य करती हैं।
3. स्तम्भाकार उपकला (Columnar epithelium) -
- इसकी कोशिकाएँ चौड़ाई में कम तथा ऊँचाई में अधिक अर्थात् आयताकार होती हैं। इसमें भी कोशिकाएँ आधार कला पर, एक परत में अवस्थित ग्रन्थियों की नलियों में पायी जाती है। इस प्रकार की उपकला में कोशिकाओं का आकार विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। कार्य की दृष्टि से यह उपकला अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह अवशोषण (Absorption) एवं स्त्रावण (Secretion) दो मुख्य कार्य करती हैं।
4. रोमक उपकला ( Ciliated epithelium) -
- इस प्रकार की कोशिकाएँ प्रायः स्तम्भाकार होती हैं, किन्तु कहीं-कहीं ये घनाकार भी होती हैं। प्रत्येक कोशिका के मुक्त सिरे पर 20 से 30 बालों के समान रचनाएँ पायी जाती हैं, जिन्हें रोमिकाएँ (Cilia or Flagellae) कहते हैं। जिस सिरे पर रोमिकाएँ अवस्थित होती हैं उसमें आधारी कणों (Basal particles) की एक पंक्ति होती है, तथा प्रत्येक आधारी कण से एक रोमक (Cilium) लगा रहता है। ये आधारी कण कोशिका के सेन्ट्रियोल के अंश (Fragments) होते हैं। इस प्रकार की उपकला सामान्यतः डिम्ब वाहिनियों (Fallopian tubes), श्वसन मार्गों तथा सुषुम्ना की मध्य नलिका आदि में पायी जाती हैं। रोमिकाएँ अपनी रोमक गति (Ciliary movement) करती हैं जो कोशिकाओं की जीवितावस्था में सदैव होती रहती है। रोमक गति प्रति सेकण्ड दस से बीस बार होती है। इसमें एक बार रोमिकाएँ झुकती हैं (Effective phase) और दूसरी बार सीधी अवस्था में लौट आती है ( Return phase) । इसी रोमक गति से डिम्ब (Ovum) डिम्ब वाहिनी से गर्भाशय की ओर खिसकता है; श्वसन मार्गों से धूल, म्यूकस (श्लेष्मा) आदि गले की ओर बढ़ते रहते हैं।
5. ग्रन्थिल उपकला (Glandular epithelium) -
- इस प्रकार की उपकला वायुकोष्ठकों में (Alveoli) तथा स्तन ग्रन्थियों, स्वेद ग्रन्थियों, लार ग्रन्थियों एवं त्वग्वसीय ग्रन्थियों (Sebaceous glands) की वाहिनियों के कुछ भागों त आन्त्रीय ग्रन्थियों के कुछ भागों एवं थाइरॉयड ग्रन्थि के वायुकोष्ठकों (Alveoliआदि का अस्तर बनाती है। इसकी कोशिकाएँ सामान्यतः घनाकार (Cubical), स्तम्भाकार अथवा बहुसतीय (Polyhedral) होती हैं तथा प्रायः एक ही परत में अवस्थित रहती हैं। इस उपकला की कोशिकाएँ किसी-न-किसी नये पदार्थ का उत्पादन करती हैं तथा उन्हें उनके अलग-अलग स्त्रावों में पास कर देती हैं, जो कि इनका अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है ।
चषक कोशिकाएँ (Goblet Cells) क्या होती है
- ये कोशिकाएँ श्लेष्मा (Mucus) का स्त्रावण करती है। इस तरह की कोशिकाएँ प्रायः स्तंम्भाकार (Columnar) एवं रोमक कोशिकाओं के बीच, जैसे श्वास प्रणाल (Trachea ), जठरान्त्र पथ (Gastro-intestinal tract) आदि में बिखरी पायी जाती हैं। कोशिका के गहराई वाले भाग में न्यूक्लियस एवं साइटोप्लाज्म होता है, जबकि शीर्ष भाग (Apical part) पर म्यूकस उत्पन्न करने वाली कणिकाएँ (Mucinogen granules ) होती हैं। ये ग्लाइकोप्रोटीन म्यूसिन बनाती हैं। जो धीरे-धीरे फूलती हैं तथा फट जाती हैं और म्यूकस (श्लेष्मा) स्त्रावित करती हैं। इस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती रहती हैं। गोब्लेट कोशिकाओं से स्त्रावित म्यूकस चिकनाई (Lubrication), श्लेष्मिाक कला पर रक्षात्मक परत बनाने, अम्ल एवं क्षारों आदि को न्यूट्रल करने, तथा जीवाणुओं, बाह्य पदार्थों आदि को फँसाने का कार्य करता है।
(B) मिश्रित उपकला (Compound Epithelium)
मिश्रित उपकला में कोशिकाओं की कई परतें होती हैं। इसका मुख्य कार्य अपने नीचे स्थित रचनाओं की रक्षा करना है। यह निम्न प्रकार की होती हैं
1. अन्तरवर्ती कोशिकाएँ (Transitional epithelium) -
- इस प्रकार की उपकला में कोशिकाओं की तीन या चार परतें होती हैं तथा यह एक परत वाली सरल उपकला (Simple epithelium) एवं अनेकों परत वाली स्तरित उपकला के बीच वाले स्थान में पायी जाती है। इसलिए इसे अन्तरवर्ती उपकला कहा जाता है। इसकी प्रथम पंक्ति की कोशिकाएँ बड़ी, चपटी, टेढ़ी-मेढ़ी तथा अष्टकोणीय आकार की रहती हैं। प्रायः इनमे दो न्यूक्लियस पाये जाते हैं। दूसरे परत में पाइरीफॉर्म कोशिकाएँ रहती हैं। जिनके सिरे बाहर की ओर गोलाकार होते हैं तथा अपने नीचे वालही अस्तर की कोशिकाओं के शीर्ष के गर्त में समाये रहते हैं। इससे नीचे की अगली एक या दो परतों में छोटी-छोटी बहुसतीय (Polyhedral) कोशिकाएँ रहती हैं जो दूसरी वाली परत की पाइरीफॉर्म कोशिकाओं के नुकीले सिरों के बीच में पैक रहती हैं। इस प्रकार की उपकला गुर्दे की गोणिका ( Pelvis of Kidney), मूत्रनलियों ( Ureters) मूत्राशय तथा मूत्रमार्ग (Urethra) के ऊपरी भाग में पायी जाती है। यह उपकला उत्सर्जित पदार्थों को संस्थान ( System) में पुनः अवशोषित होने से रोकती है।
2. श्रृंगी स्तरीय शल्की उपकला (Stratified squamous cornified epithelium) -
- यह उपकला कोशिकाओं की अनेकों परतों से मिलकर बनती है। उपरिस्थ (Superficial) परत करैटिन (Keratin) के जमाव के कारण श्रृंगी (Horny ) हो जाती है। यह त्वचा में पायी जाती है। बाल, नाखून, दाँतों का इनेमल आदि इसी वर्ग के एपीथीलियल ऊतक हैं। त्वचा की अगली परत चपटी, शल्कों के समान, दबी-दबी या संक्षिप्त कोशिकाओं से बनती है। इसके नीचे वाली परत में कोशिकाएँ चौड़ी और बहुसतीय (Polyhedral) होती हैं। इससे भी अगली, और भी गहराई में स्थित कोशिकाएँ छोटी तथा स्तम्भाकार होती हैं, जो कि एक-दूसरे से असंख्य अन्तर्कोशिकीय तंतुक (intercellular fibrils) तथा जीवद्रव्यी प्रवर्धी (Protoplasmic Processes), जो काँटों के समान प्रतीत होते हैं, के द्वारा जुड़ी रहती हैं। इसी काँटेदार बनावट के कारण इन कोशिकाओं को 'शक कोशिकाएँ' (Prickle cells) कहा जाता है। रगड़ एवं घर्षण से उपरिस्थ परतों की कोशिकाएँ बराबर झड़ती रहती हैं। इन कोशिकाओं की क्षतिपूर्ति, गहराई में स्थित परत की कोशिकाओं में कोशिका विभाजन होते रहने से निरन्तर होती रहती है।
- इस प्रकार की उपकला वातावरणीय प्रभाव, यान्त्रिक दबाव, रगड़ खाने तथा चोट पहुँचने आदि से अपने नीचे स्थित रचनाओं की रक्षा करती है। त्वचा इसका एक उत्तम प्रारुपिक उदाहरण (Typical example) है।
3. अश्रृंगी स्तरित शल्की उपकला (Stratified squamous, non-cornified)
- हिस्टोलॉजीकली, इसकी रचना श्रृंगी स्तरित उपकला के समान ही है, अन्तर केवल इतना है कि इसमें उपरी परत करैटिनीकृत नहीं होती है। इस तरह की उपकला कॉर्निया, मुँह, ग्रसनी (Pharynx) ग्रासनली ( Oesophagus), गुदीय नाल (Anal canal), मूत्रमार्ग के निम्न भाग, स्वर - रज्जु (Vocal cords), योनि एवं गर्भाशय ग्रीवा (Cervix) आदि अंगों में पायी जाती है। इस उपकला से अंगों को यान्त्रिक सुरक्षा मिलती है।
4. स्तरित स्तम्भाकार उपकला ( Stratified columnar epithelium)-
- इस प्रकार की उपकला दुर्लभ (Rare) होती है तथा केवल कुछ ही स्थानों पर पायी जाती है। यह स्वच्छमण्डल ( Fornix of conjuctiva ) ग्रसनी (Pharynx), कण्ठच्छद (Epiglottis), गुदीय म्यूकोजा ( Anal mucosa), पुरुष मूत्रमार्ग के कैवरनस भाग आदि छोटे-छोटे भागों को ढके रहती है।
5. रोमक-
- स्तरित स्तम्भाकार उपकला (Stratified columnar ciliated epithelium)- यह भी केवल कुछ छोटे स्थानों, जैसे कोमल तालू की नासा सतह (Nasal surface), स्वर यन्त्र के कुछ भागों आदि में पायी जाती है।
2) संयोजी ऊतक (Connective tissue)
- यह ऊतकों का एक विस्तृत समूह है, जो कई प्रकार के होते हैं। इन ऊतकों का विशिष्ट कार्य सेयोजन करना, अंगों को आच्छादित करना तथा उन्हें यथास्थान रखना है। ये शरीर कोशिकाओं की तरह बहुत अधिक सटी हुई नहीं होती बल्कि एक दूसरे से काफी अलग-अलग रहती हैं जिनके बीच के स्थान में अन्तर्कोशिकीय पदार्थ (Intercellular Substance), जिसे मैट्रिक्स कहते हैं, भरा रहता है। यह पदार्थ सूत्रमयी (Fibrous ) दिखाई देता है। संयोजी ऊतकों की कोशिकाएँ विभिन्न रूप रंग और आकार की होतीहैं यद्यपि सबके संयोजी कार्य में समानता होती है। वास्तव में ये सभी आद्य कोशिकाओं से उत्पन्न होते हैं। जिन्हें मीजेनकाइमल कोशिकाएँ (Mesenchymal cells) कहते हैं ।
संयोजी ऊतक ( Connective tissue) निम्न प्रकार के होते हैं
1. अवकाशी ऊतक (Areolar tissue)
2. वसीय ऊतक (Adipose tissue)
3. श्वेत सौत्रिक या तन्तुमय ऊतक (White fibrous )
4. पीत प्रत्यास्थ ऊतक (Yellow elastic tissue )
5. जालीदार ऊतक (Reticular tissue )
6. रक्त उत्पादक ऊतक (Haemopoietic tissue)
7. उपास्थि ( Cartilage )
8. अस्थि ऊतक (Bone or osseous tissue )
9. लसीकाभ ऊतक (Lymphoid tissue)
10. श्लेष्माभ ऊतक (Mucoid tissue)
1. अवकाशी ऊतक (Areolar tissue )
- शरीर में यह अन्य संयोजी ऊतकों की अपेक्षा सबसे अधिक पाया जाने वाला ऊतक हैं यह ढीला-ढाला ऊतक होता है जो प्रायः अन्य ऊतकों को जोड़ने और उन्हें सहारा देने का कार्य करता है। यह शरीर के प्रत्येक भाग पर, जैसे त्वचा के नीचे, पेशियों के बीच मे तथा पाचक नली (Alimentarycanal) आदि में यह पाया जाता है। पेशियों, रक्तवाहिनियों एवं तन्त्रिकाओं आदि को परस्पर बाँधे रहने और उन्हें अपने स्थान पर स्थिर रखने वाली प्रावरणी ( Fascia) के आवरण भी इसी ऊतक से बने होते हैं। ग्रन्थियों में यह ऊतक स्त्रावी कोशिकाओं (Secretory cells) को सहारा देते हैं।
- अवकाशी ऊतक में विभिन्न तन्तु (Fibres ) श्वेत या कोलेजनमय, पीत प्रत्यास्थ (Yellow elastic) एवं जालीदार (Reticular) तन्तु तथा विभिन्न कोशिकाएँ–फाइब्रोब्लास्ट्स, हिस्टयोसाइट्स, बेसोफिल्स, प्लाज्मा सेल्स, पिगमेन्ट सेल्स एवं मास्ट सेल्स पायी जाती हैं।
2. वसीय ऊतक (Adipose tissue )
- वसा ऊतकों की विशेषता है कि इनमें स्थित वसा कोशिकाओं (Fat cells) में उन्मुक्त वसा विद्यमान रहती है। वसीय कोशिकाएँ अवकाशी ऊतकों के ढीले फ्रेम (मैट्रिक्स) पर आधृत रहती हैं। कोशिकाएँ प्रायः बड़ी-बड़ी, गोलाकार या अण्डाकार होती हैं। आस पास की कोशिकाओं के दबाव के कारण इन ऊतकों की कोशिकाएँ बहुसतीय (Polyhedral) हो जाती हैं। वसीय ऊतक की कोशिका का समस्त भाग वसा- गोलिकाओं (Fat globules) से भरा हुआ रहता है। यहाँ तक कि वसा के दबाव से साइटोप्लाज्म तथा न्यूक्लियस किनारों से चपटे हो जाते हैं।
- इस प्रकार के वसीय ऊतक आँखों की पलकों, शिश्न, वृषणकोष (Scrotum), लघु भगोष्ठ (Labia minora ), मस्तिष्कीय गुहा आदि के अतिरिक्त शरीर के प्रायः सभी स्थानों के अधस्त्वचीय ऊतकों (Subcutaneous tissues) में पाया जाता है। पीत-अस्थि मज्जा (Yellow bone marrow) में वसा अधिक रहती है। प्रस्त्रावित दुग्ध ग्रंधियों (Lactating mammary glands) में वसीय ऊतकों का बहुल्सय रहता है।
- वसीय ऊतक त्वचा में नीचे रहकर प्रत्यंगों एवं शरीर को आकृति (Shape) देता है; अंतरांगों के चारों ओर रहकर अपने-अपने स्थान पर स्थिर रखता है तथा चोट लगने से रक्षा करता है। यह वसाओं के रूप में शरीर में शक्ति को संचित करता है और शरीर के तापमान को नियमित रखता है। भूखे रहने की स्थिति में शरीर में संचित वसा का ही उपयोग होता है। ऐसी स्थिति में इसका ऑक्सीकरण होता है जिससे शरीर के लिए आवश्यक ऊर्जा एवं ऊष्मा की प्राप्ति होती है।
3. श्वेत सौत्रिक या तन्तुमय ऊतक (White fibrous tissue)
- इस प्रकार के ऊतक चमकदार श्वेत तन्तुओं (Fibres ) से निर्मित होते हैं । ये तन्तु पतले और आशाखीय (Non-branching) रहते हैं प्रायः ये तन्तु एकाकी न रहकर बण्डलों में रहते हैं। श्वेत तन्तुओं के बण्डल लहरदार (Wavy) होते हैं तथा विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होते से दिखाई देते हैं। बण्डलों से ही शाखाएँ आवस में मिलती जाती हैं। इनके बीच-बीच का खाली स्थान अवकाशी ऊतक तथा संयोजी ऊतक कणिकाओं (Connective tissue corpuscles) से भरा रहता है। इन ऊतकों की रासायनिक रचना में मुख्य रूप से 'कोलेजन' नामक प्रोटीन होती है।
- इस प्रकार के ऊतक कण्डराओं (Tendons), स्नायुओं (Ligaments), संधि - संपुटों (Articular capsule), अंगों के तन्तुमय आवरणों तथा कुछ कलाओं (Membranes ) में पाये जाते हैं।
- इन ऊतकों का कार्य शरीर के विभिन्न भागों तथा शरीर के विभिन्न ऊतकों को जोड़ना है, तथा ये जहाँ भी रहते हैं, वहाँ उन अंगों का फैलाव एवं उनके दबाव से यान्त्रिक सुरक्षा (Mechanical protection) प्रदान करते हैं। साथ ही इन अंगों को अत्यधिक दृढ़ता तथा अत्यधिक मात्रा में नम्यता एवं लचीलापन प्रदान करते हैं।
4. पीत प्रत्यास्थ ऊतक (Yellow elastic tissue )
- इस प्रकार के संयोजी ऊतकों की रचना भी तन्तुमय ही रहती है, परन्तु श्वेत सौत्रिक ऊतकों से इनकी रचना मिलती है। इनमें पीलापन रहता है तथा तन्तु कुछ मोटे होते हैं। प्रत्येक तन्तु में से अनेक उन्मुक्त शाखाएँ फूटती हैं जो एक-दूसरे से जुड़ती जाती हैं, जिससे एक जाल के समान रचना बन जाती है। तन्तु अलग-अलग और कभी-कभी बण्डलों के रूप में प्रवाहित होते हैं। बण्डल में रहने पर भी प्रत्येक तन्तु की बाह्य रेखा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इनमें लहरिया (Wavy) प्रवाह नहीं रहता है, बल्कि ये सीधे-सीधे ही प्रवाहित होते हैं। इन तन्तुओं में प्रत्यास्थता (Elasticity) रहती है; तथा ये 'इलास्टिन' (Elastin) नामक प्रोटीन से बने होते हैं।
- इस प्रकार के ऊतक रक्त वाहिनियों एवं श्वास नलिकाओं की भित्तियों में पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त ये बाह्य कणों (Extenal ears) तथा कण्ठच्छद (Epiglottis) आदि की उपस्थि में भी पाये जाते हैं। स्नायुओं के रूप में ये ऊतक संधियुक्त भागों को कसकर थामें रहते हैं और यही लचीले स्नायु जुड़े हुए अंगों को स्वच्छंद गति करने देते हैं। इस प्रकार के ऊतक रक्तवाहिनियों में अपने प्रत्यास्थ प्रतिक्षेप (Elastic recoil) गुण के द्वारा अत्यधिक विस्फारण की स्थिति आने से रोकते हैं तथा इस प्रकार से रक्त परिसंचरण तथा रक्तचाप को नियन्त्रित रखने में भी सहायता प्रदान करते हैं। फेफड़ों में इसका प्रत्यास्थ-प्रतिक्षेप गुण बहिःश्वसन ( Expiration) किया में भी सहायता प्रदान करता है।
5. जालीदार ऊतक (Reticular tissue)
- इस तरह के ऊतक भी अवकाशी ऊतकों के समान होते हैं। लेकिन इनकी कुछ अपनी भी विशिष्टताएँ होती हैं। ये रचना में श्वेत तन्तुमय ऊतक (White fibrous tissue ) से मिलते-जुलते होते हैं, परन्तु ये बारीक एवं पतले होते हैं; इनमें से उन्मुक्त शाखाएँ फूटती हैं, इनकी कोशिकाओं के बीच में बहुत कम खाली स्थान रहता खाली स्थान में लसीका ( Lymph) एवं ऊतक द्रव्य भरा रहता है। तथा उस ये ऊतक शरीर में फैले रहते हैं। इन्हीं से कई प्रकार के उपकला ऊतकों की आधारीय कला (Basement membrane) बनती है, कई अंगों के फ्रेम बनते हैं तथा ये उनकी कोशिकामयी रचना को सहारा भी देते हैं। इस तरह के ऊतक यकृत, प्लीहा, अस्थिमज्जा (Bone marrow) तथा बहुत से अन्य अंगों में पाये जाते हैं.
6. रक्त उत्पादक ऊतक (Haemopoetic tissue )
- रक्त एक प्राणाधर तरल संयोजी ऊतक है। इस पर प्राणियों का जीवन निर्भर करता है। वाहिकाओं में होकर रक्त सम्पूर्ण शरीर में जीवन पर्यन्त धाराप्रवाह बहता रहता है। रक्त एक ऐसा ऊतक है, जो द्रव (Fluid) है तथा अस्थिर एवं गतिशील है। रक्त का परिमाण शरीर का 1 / 20 भाग होता है। इस प्रकार स्वस्थ शरीर में रक्त की मात्रा लगभग 6 लीटर होती है।
7. उपास्थि ऊतक ( Cartilage tissue)
उपास्थि (कार्टिलेज) ऊतक अन्य संयोजी ऊतकों से अधिक दृढ़ परन्तु अस्थि की अपेक्षाकमजोर होता है। यह कुछ-कुछ अपारदर्शी, चमकदार, दृढ़ रचना वाला प्रत्यास्थपूर्ण यानि लचीला होता है। उपास्थि ऊतक, उपास्थि कोशिकाओं (Cartilage cells), कोण्ड्रोब्लास्ट्स (Chondroblasts) तथा काफी मात्रा में अंतःकोशिका आधार पदार्थ (मैट्रिक्स) से मिलकर बने होते हैं। मैट्रिक्स स्वच्छ एवं समांशी (Homogeneous) होता है अथवा इसमें तन्तुमय ऊतक (Fibrous tissue) भी विद्यमान हो सकते हैं। कार्टिलेज कोशिकाओं की संख्या तथा मैट्रिक्स की प्रकृति के आधार पर कार्टिलेज (उपास्थि) को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(i) काचाभ या हायलीन उपास्थि (Hyaline cartilage)
(ii) तन्तुकी उपास्थि (Fibro-cartilage)
(iii) प्रत्यास्थ या इलास्टिक उपास्थि (Elastic cartilage)
(i) काचाभ या हायलीन उपास्थि (Hyaline cartilage) -
- यह उपास्थि कोशिकाओं तथा स्वच्छ समांशी मैट्रिक्स की बनी होती हैं। इसमें तन्तु ऊतक (Fibrous tissue) बिल्कुल नहीं होते हैं। यह नवीन असस्था में अर्द्धपारदर्शक नीलापन लिए हुए श्वेत पदार्थ सा दिखाई देता है। इसका मैट्रिक्स ठोस और चिकना होता है, जिसमें कोलेजन तन्तु तथा सम्पुट में कोण्ड्रोसाइट नामक कोशिकाएँ पायी जाती हैं।
- यह उपास्थि सन्धायक उपास्थि के रूप में अस्थियों के सन्धितल (Articular ends) पर वृद्धि की ओर अगसर लम्बी अस्थियों के अधिवर्ष (Epiphysis) तथा अस्थिवर्ध यानि दीर्घास्थि कांड (Diaphysis) पर, पर्शुकाओं के अग्र (Anterior) सिरे पर पायी जाती है। यह उपास्थि नाक, बहिः कर्ण - कुहर ( External auditory meatus ), स्वर यन्त्र (Larynx), श्वास प्राणाल (Trachea ) तथा श्वासनलियों (Bronchial tubes) आदि में भी पायी जाती है। विभिन्न स्थानों पर इसके नाम भी भिन्न-भिन्न हो जाते हैं, जैसे पर्शुकाओं के पास इन्हें पर्शुका उपास्थि ( Articular Cartilage) तथा विकासशील अस्थियों के बीच इन्हें अधिवर्ध उपास्थि (Epiphyseal cartilage) कहते हैं
(ii) तन्तुमय उपास्थि (Fibro-cartilage) -
- इस प्रकार उपास्थि वहाँ विद्यमान होती है, जहाँ कि तनावयुक्त शक्ति के साथ लचीलेपन एवं दृढ़ता की आवश्यकता होती है। यह मैट्रिक्स में श्वेत तन्तुओं के सघन पिण्डों के भरने से बनती है। यह कशेरुकाओं के कार्यों (Vertebral bodies) के बीच में गद्दियों के रूप में पायी जाती है, जिन्हें अन्तरा - कशेरुका चक्रिकाएँ (Intervertebral discs) कहा जाता है। यह उपास्थि एक अन्तरासन्धि उपास्थि ( Inter-articular cartilage) के रूप में घुटनों के जोड़ों की अस्थियों की सन्घायक सतहों के बीच में पायी जाती है। जिन्हें अर्द्धचन्द्राकार उपास्थि (Semilunar cartilage) कहा जाता है। अस्थियों को जोड़ने वाले स्नायुओं (Semilunar cartilage) के रूप में तथा जघन सन्धानक (Pubic symphysis ) की उपास्थि गद्दी में यही उपास्थि पायी जाती है।
(iii) प्रत्यास्थ उपास्थि (Elastic cartilage) -
- यह उपास्थि उन भागों में पायी जाती है जहाँ सहारे के साथ-साथ लचीलेपन की आवश्यकता होती है। इसका रंग पीला होता है तथा इसमें बहुत से प्रत्यास्थ तन्तु विद्यमान रहते हैं। मैट्रिक्स में असंख्य प्रत्यास्थ (Elastic ) तन्तु की विद्यमानता होने से यह हायलीन कार्टिलेज से भिन्न हो जाती है। मैट्रिक्स में इलास्टिक तन्तु के अतिरिक्त कोलेजन तन्तु भी विद्यमान होते हैं। प्रत्यास्थ तन्तुओं के बीच-बीच में कोण्ड्रोसाइट नामक कोशिकाएँ भी पड़ी होती हैं।
- इस प्रकार के ऊतक में लचीलापन बहुत होता है अतः दबाने या मोड़ने के तुरन्त बाद यह पुनः अपनी पूर्व स्थिति में लौट आता है । यह कर्ण - पाली (Pinna), यूस्टेचियन नली, कण्ठच्छद (Epiglottis) एवं स्वरयन्त्रज कार्टिलेज के कुछ भाग में पायी जाती है।
8. अस्थि ऊतक (Bone or osseous tissue)
- समस्त संयोजी ऊतकों में यह सबसे अधिक कठोर एवं दृढ़ ऊतक है, जो कंकाल (Skeleton) का निर्माण करता है। यह अस्थि कोशिकाओं (Bone cells), कैल्सियम लवणों तथा अन्तराकोशिकीय आधार- पदार्थ का बना होता है। यह सब अस्थ्यावरण (Periosteum) से आच्छादित रहते हैं। इसमें तीन तरह की अस्थि कोशिकाएँ ऑस्टियोब्लास्ट, ऑस्टियोसाइट तथा ऑस्टियोक्लास्ट होती है, जो परस्पर सम्बद्ध रहती है।
घनत्व एवं कठोरता के आधार पर अस्थि को दो वर्गों में विभाजित किया गया है-
(i) सघन अस्थि (Compact or dense bone)
(ii) सुषिर अस्थि (Cancellated or spongy bone)
(i) सघन अस्थि -
- समस्त अस्थियों की बाह्य परत तथा दीर्घास्थियों के काण्ड (Shaft) सघन अस्थि ठोस प्रतीत होती है परन्तु इसकी अनुप्रस्थ काट (Transverse section) का सूक्ष्मदर्शीय परीक्षण करने पर चक्रों की एक डिजाइन - सी दिखाई देती है। प्रत्येक चक्र के मध्य में एक नलिका पायी जाती है, जिसे हैवरसीयन - नलिका (Haversian canal) कहते हैं, इसमें रक्त वाहिनियाँ लसीका वाहिनियाँ, तन्त्रिकाएँ एवं कुछ मज्जा कोशिकाएँ रहती हैं, जो चारों ओर से अस्थियों की तहों (Plates ) से घिरी होती है। ये विभिन्न आकार की चक्राकार तहें होती हैं जो एक दूसरे के भीतर स्थित रहती है, इन्हें हैवरसीयन पटलिका (Haversian lamellae) कहते हैं। पास-पास सटी इन तहों के मध्य में सूक्ष्म रिक्त स्थान (गर्त) होते हैं, जिन्हें रिक्तिकाएँ (Lacunae ) कहते हैं। इनमें लसीका (Lymph) तथा अस्थि कोशिकाएँ (Osteocytes) पायी जाती हैं। प्रत्येक रिक्तिका (Lacuae) के चारों ओर सूक्ष्म लहरदार नलिकाएँ निकलती हैं, जिन्हें सूक्ष्म प्रणालिकाओं द्वारा प्रत्येक रिक्तिका (Lacunae ) एक-दूसरे से तथा अन्ततः हैवरसीयन नलिका से सम्बन्धित रहती हैं। रक्त से निकला हुआ लिम्फ या लसीका हैवरसीयन नलिका में होकर, प्रणलिकाओं में होता हुआ, रिक्तिकाओं की गर्तिकाओं में पहुँच जाता है तथा वहाँ पर स्थित अस्थि कोशिका का पोषण करता है। ये सभी रचनाएँ मिलकर हैवरसीयन - तन्त्र ( Haversian system) कहलती हैं.
(ii) सुषिर अस्थि -
- नग्न नेत्रों से देखने पर इस प्रकार की अस्थि खोखली या स्पन्जी दिखायी देती है। इसकी अनुप्रस्थ (Transverse section) का सूक्ष्मदर्शीय परीक्षण करने पर हैवरसीयन - नलिकाएँ सघन अस्थि की अपेक्षा बहुत बड़ी-बड़ी होती हैं और पटलिकाएँ बहुत कम होती हैं, जिससे अस्थि की अनुप्रस्थ काट मधुमक्खियों के छतों की भाँति प्रतीत होती है। सुषिर अस्थि में हमेशा लाल अस्थि मज्जा (Red bone marrow) पायी जाती है। यह कोमल कार्बनिक पदार्थ रक्तोत्पादक होता है तथा इससे लाल रक्त कोशिकाओं की उत्पत्ति होती है।
सुषिर अस्थि, चपटी अस्थियों के आन्तरिक भाग, दीर्घास्थियों के गोलाकार सिरों, पर्शुकाओं, तथा कशेरुकाओं के कार्यों (Body of the vertebrae) आदि में पायी जाती है। सघन अस्थि की पतली तह से ढकी रहने वाली अस्थियाँ भी भीतर से सुषिर ( Spongy ) रहती हैं।
अस्थावरण (Periosteum )
यह एक तन्तुमय (Fibrous) तथा वाहिकीय ( Vascular) झिल्ली होती है, जो प्रायः पूर्णरूपेण अस्थियों को आच्छादित किए रहती है। इसमें बाह्य एवं आन्तरिक दो परतें होती हैं। बाह्य परत श्वेत- तन्तुमय ऊतकों की बनी होती है, जिसमें रक्तकोशिकाएँ तथा लसीकाएँ होती हैं और इससे ही अस्थि को पोषण मिलता है। आन्तरिक परत, अस्थि के ठीक ऊपर उसी से सटी रहती है, तथा ऑस्टियोब्लासस्ट्स एवं ऑस्टियोक्लास्ट्स नामक कोशिकाओं से बनी होती है। इन्हीं कोशिकाओं के शेषांश (Remnants) मूल अस्थि की रचना में भाग लेते हैं ।
- आस्थावरण (Periosteum), अस्थि को ढँकती है तथा उसकी 'अति वृद्धि' पर नियन्त्रण रखती है। सामान्य अस्थि निर्माण की प्रथम- नियन्त्रक अस्थ्यावरण ही होती है।
- इससे अस्थि को पोषण मिलता है। अस्थ्यावरण से ही पेशियाँ तथा उनकी कण्डराएँ सलग्न रहती हैं। अस्थ्यावरण की निचली परत, नवीन अस्थि के निर्माण की भी क्षमता रखती है। अपनी इसी विशेषता के कारण ये अस्थि भंग के विरोहरण (Healing ) में सहायता देती है। अस्थि का विकास (Ossification) धीरे-धीरे, कई अवस्थाओं को पार करने के उपरान्त पूर्ण होता है।
9. लसीकाभ ऊतक ( Lymphoid tissue)
- लसीका (Lymph) भी एक प्रकार का संयोजी ऊतक होता हैं। इसमें एक अर्द्ध ठोस (Semi-solid) मैट्रिक्स होता है, जिसमें लसीका कोशिकाएँ (Lymphocytes) अधिक संख्या में पायी जाती हैं, इनका अधिकांश भाग केन्द्रक से ही भरा रहता है। लसीकाभ ऊतकों में इस प्रकार की कोशिकाएँ सर्वत्र बिखरी रहती हैं। इनके अतिरिक्त सूक्ष्म भित्तियों वाली नलिकाएँ - लसीका वाहिनियाँ भी होती हैं, जिनमें वाल्व भी रहते हैं और इन्हीं वाल्वों के कारण लसीका एक दिशा में बहती है।
- इस प्रकार के ऊतक लसीका पर्वो (Lymph nodes), प्लीहा (Spleen), टान्सिल्स, एपेंडिक्स छोटी एवं बड़ी आँतों की श्लेष्म कला, अस्थिमज्जा, थाइमस ग्रन्थि आदि में पाये जाते हैं। लसीका ग्रन्थि में लसीकाभ ऊतक समूहों में रहते हैं।
- लसीकाभ ऊतकों में रोगक्षमता उत्पन्न करने वाले पदार्थों (Immunizing substances) का निर्माण होता है, जो शरीर को रोगमुक्त रखने में सहायक होते हैं।
10. श्लेष्माभ ऊतक (Mucoid tissue)
- श्लेष्माभ ऊतक अवकाशी ऊतकों के ही रूपान्तरित भ्रूणीय ऊतक होते हैं, जिनमें तन्तुमय ऊतकों का अभाव रहता है तथा कोशिकाएँ लगभग समांगी (Homogeneous) जैली के समान आधार-पदार्थ (मैट्रिक्स) में इधर-उधर बिखरी होती हैं तथा साथ ही कुछ तन्तु भी रहते हैं। इस तरह के ऊतक नाभिरज्जु (Umbilical cord) में हारटन्स जैली (Wharton's jelly) के रूप में तथा वयस्कों में नेत्र- काचाभ द्रव (Vitreous humour) में पाये जाते हैं।