उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन
उत्सर्जी पदार्थ एवं उत्सर्जी तंत्र
· जीवों के शरीर में उपापचयी
क्रियाओं के कारण कार्बन डाइऑक्साइड, जल, अमोनिया
इत्यादि कुछ ऐसे पदार्थ भी बनते हैं जो शरीर में एक निश्चित मात्रा से अधिक हो
जाने पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं। इन पदार्थों को उत्सर्जी या अपशिष्ट या वर्ज्य
पदार्थ (Excretory or Waste
substances) कहते हैं।
·
उत्सर्जी पदार्थ
शरीर के लिये हानिकारक होते हैं, इसलिये इन्हें शरीर से बाहर निकालना अत्यंत
आवश्यक होता है। इन वर्ज्य पदार्थों को शरीर की कोशिकाओं या ऊतकों से अलग करके
शरीर से बाहर निकालने की क्रिया को उत्सर्जन कहते हैं।
·
उत्सर्जन क्रिया में शरीर के कुछ
अंग भाग लेते हैं, इन अंगों को उत्सर्जी अंग (Excretory organs) तथा
उत्सर्जन से सम्बन्धित सभी अंगों
को एक साथ उत्सर्जी तंत्र (Excretory system) कहते
हैं।
उत्सर्जन का महत्त्व (Significance of Excretion)
1. इस
क्रिया के द्वारा शरीर की उपापचयी क्रियाओं में बने उत्सर्जी जाता है।
2. यह शारीरिक साम्य (Homeostasis) को
बनाये रखता है ।
3. इसके कारण शरीर में विभिन्न प्रकार के उत्सर्जी पदार्थों की
सान्द्रता नियंत्रित होती है।
4. उत्सर्जन के द्वारा ही शारीरिक द्रवों का परासरण दाब (O.P.) एवं pH नियंत्रित
रहता है।
5. इसके
द्वारा शारीरिक द्रवों का अम्ल-क्षार
सन्तुलन स्थापित रहता है।
उत्सर्जी पदार्थ एवं जन्तु
यूरिया- स्तनी, मेढक, कछुआ
अमोनिया-
एलीगेटर्स, अस्थिय मछलियाँ
यूरिक
अम्ल- पक्षी, सरीसृप, छिपकली एवं साँप
उत्सर्जन के प्रकार TYPES OF EXCRETION)
उत्सर्जित नाइट्रोजन व पदार्थों के आधार पर जन्तुओं एवं उनमें होने वाली उत्सर्जन की प्रक्रिया को तीन समूहों में वर्गीकृत किया गया है-
1. अमोनोटेलिन्म
(Ammonotelism)—
ऐसे
जन्तु जो जन्तु प्रोटीन के उपापचय से निर्मित अमीनो अम्लों के ऑक्सीकरण से बने नाइट्रोजनी पदार्थ को अमोनिया के रूप में उत्सर्जित करते हैं,
उन्हें अमोनोटेलिक जन्तु (Ammonotelic animals) तथा इस प्रक्रिया को अमोनोटेलिज्म (Ammonotelism) कहते
हैं।
उदाहरण- आर्थ्रोपोड्स
(जैसे- झींगा), उभयचर
टेडपोल (जैसे- मेढक
का टेडपोल), सरीसृप
(जैसे—मगरमच्छ) आदि।
2 यूरियोटेलिज्म (Ureotelism)-
जन्तु
जो कि नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थों को
यूरिया के रूप में उत्सर्जित करते हैं, उन्हें यूरियोटेलिक (Ureotelic) जन्तु कहते हैं तथा इस प्रकार का उत्सर्जन
यूरियोटेलिज्म (Ureotelism) कहलाता
है।
उदाहरण
– मनुष्य
3 यूरिकोटेलिज्म (Urecotelism)—
यूरिकोटेलिज्म
वह उत्सर्जन है जिसमें उपापचयी क्रियाओं के बाद बनी अमोनिया को यूरिक अम्ल के
रूप में उत्सर्जित किया जाता है। यह उत्सर्जन शुष्क वातवरण में रहने वाले
जन्तुओं, जैसे- छिपकलियों, सर्पों कुछ घोंघों (Snails), कीटों
(जैसे—कॉकरोच), पक्षियों और उन स्तनियों में पाया जाता है जो
शुष्क वातावरण में रहते हैं।
यूरिकोटेलिज्म
उत्सर्जन करने वाले जन्तुओं को यूरिकोटेलिक जन्तु (Urecotelic animals) कहते
हैं।
विभिन्न जन्तुओं में उत्सर्जन
एककोशिकीय
जन्तु
एककोशिकीय
जन्तु समान जीवों में उत्सर्जन
विसरण के द्वारा होता है। इनमें बने नाइट्रोजनी उत्सर्जी
पदार्थ जैसे—
यूरिया, यूरिक
अम्ल और अमोनिया शरीर में उपस्थित जल में घुलकर सामान्य विसरण के द्वारा कोशिका (शरीर) से
बाहर निकल आते हैं।
स्पन्जों
अर्थात् संघ पोरीफेरा
स्पन्जों
अर्थात् संघ पोरीफेरा के जन्तुओं में उत्सर्जन एक विशिष्ट
नलिका तन्त्र (Canal system) के
द्वारा होता है। यह नाल तन्त्र शरीर से बाहर खुलता है
और उत्सर्जी पदार्थों को शरीर से बाहर कर देता है।
हाइड्रा तथा दूसरे सीलेण्ट्रेट्स
हाइड्रा
तथा दूसरे सीलेण्ट्रेट्स में उत्सर्जन के लिये कोई
विशिष्ट अंग नहीं होता। इनके शरीर की सभी कोशिकाएँ जल के सीधे
सम्पर्क में रहती हैं, इस कारण ये अपने अन्दर बने उत्सर्जी पदार्थों
को सीधे बाह्य वातावरण में विसरित कर देती हैं।
प्लैनेरिया और दूसरे चपटे कृमियों
प्लैनेरिया
और दूसरे चपटे कृमियों (Flat worms) में
उत्सर्जन के लिये कुछ विशिष्ट कोशिकाएँ पायी जाती हैं। इन कोशिकाओं को ज्वाला
कोशिकाएँ (Flame cells) कहते
हैं।
नेरिस, केंचुए तथा दूसरे एनेलिड्स
नेरिस, केंचुए
तथा दूसरे एनेलिड्स में उत्सर्जन की क्रिया एक विशेष प्रकार की पतली लम्बी
कुण्डलित नली के समान रचना के द्वारा होती है, जिन्हें नेफ्रीडिया
(Nephridia) कहते हैं।
आर्थोपोडा
अधिकांश
आर्थोपोडा जन्तुओं जैसे-कीटों, कॉकरोच, सहस्रपादियों और बिच्छुओं में
उत्सर्जन कुछ विशिष्ट नलिकाओं द्वारा होता है जो आहारनाल से
सम्बन्धित होती हैं। इन नलिकाओं को मैल्पीघियन नलिकाएँ (Malpighian tubules) कहते
हैं।
मोलस्का
मोलस्का
तथा दूसरे जन्तुओं में उत्सर्जन वृक्क या मूत्र अंग (Renal organ) के द्वारा होता है।
इकाइनोडर्मेटा
इकाइनोडर्मेटा
(Echinodermata) के
विभिन्न सदस्यों में विशिष्ट प्रकार के उत्सर्जन अंग का अभाव होता है। इनमें
उत्सर्जन की क्रिया सीलोमिक द्रव (Coelomic fluid) में
पाये जाने वाले अमीबोसाइट्स (Amoebocytes) नामक
कोशिकाओं द्वारा संपन्न होती है।
कशेरुकी जन्तुओं में उत्सर्जन (Excretion in Vertebrates)
मनुष्य
सहित सभी कशेरुकियों में उत्सर्जन या मूत्र निर्माण का कार्य
वृक्कों द्वारा किया जाता है अर्थात् वृक्क ही कशेरुकियों के मुख्य उत्सर्जी अंग हैं लेकिन शरीर के कुछ और
अंग मूत्र के निष्कासन में सहायता करते हैं। वृक्क तथा इसकी सहायता करने वाले
अंगों को ही एक साथ उत्सर्जन तन्त्र कहते हैं।
मनुष्य में उत्सर्जन या मानव उत्सर्जन तन्त्र
मनुष्य
का उत्सर्जन तन्त्र निम्न अंगों का बना होता है—
(A) वृक्क
(B) एक जोड़ी मूत्रवाहिनियाँ (A pair of ureters)
(C) मूत्राशय (Urinary bladder)
(D) मूत्रमार्ग (Urethra)।
वृक्क Kidneys)
मनुष्य
की उदर गुहा के पृष्ठ भाग में डायफ्राम के नीचे एक जोड़ी गहरे लाल रंग की चिकने
सेम के बीज की आकृति के अंग कशेरुक दण्ड के इधर-उधर
स्थित होते हैं, जिन्हें
वृक्क कहते हैं।
·
दायीं ओर का वृक्क यकृत की उपस्थिति के कारण लगभग 25 मिमी
नीचे स्थित होता है।
·
मनुष्य का वृक्क लगभग चार इंच
लम्बा और 150 ग्राम वजनी होता है। इसके चारों
तरफ एक पतली पेरीटोनियम नामक झिल्ली पायी जाती है। इसी झिल्ली के द्वारा यह उदर
गुहा की पृष्ठ दीवार से जुड़ा रहता है, यह झिल्ली उदर गुहा के शेष अंग तथा
वृक्क को अपनी जगह पर साधे रहते हैं।
·
वृक्क की बाहरी सतह उत्तल तथा
भीतरी सतह अन्दर की तरफ धँसकर एक गड्ढा बनाती है जिसे वृक्क नाभि (Hilum) कहते हैं। यहीं से मूत्रवाहिनी निकलती
है और यहीं से प्रत्येक वृक्क में एक चैनल धमनी अन्दर जाती है एवं एक रीनल शिरा
बाहर आती है।
वृक्क की आंतरिक संरचना Internal Structure of Kidney)
·
प्रत्येक
वृक्क बाहर से एक आवरण द्वारा घिरा होता है जिसे पेरीटोनियम (Peritonium) कहते
हैं। वृक्क आन्तरिक रूप से दो भागों में बँटा होता है। बाहरी भाग को कॉर्टेक्स (Cortex) तथा भीतरी
भाग को मेडुला (Medulla) कहते
हैं।
·
कॉर्टेक्स भाग थोड़ी-थोड़ी
दूर पर मेडुला के अन्दर धँसकर कगारें बनाता है, जिन्हें
बर्टिनी के वृक्कीय स्तम्भ (Renal columns of Bertini)
कहते
हैं। इन कगार रूपी स्तम्भों के बीच-बीच
में मेडुला तिकोने उभारों के रूप में उठी रहती है, जिन्हें
वृक्कीय शंकु (Renal pyramids) कहते
हैं। इनके चौड़े आधार कॉर्टेक्स की तरफ और शिखर वृक्क के केन्द्र की ओर स्थित होते
हैं। इन शिख को वृक्क अंकुर (Renal papillae) कहते
हैं। मनुष्य के प्रत्येक वृक्क में 8-12 वृक्क अंकुर पाये जाते हैं।
·
वृक्क के पिरामिड में अनेक वृक्क
नलिकाएँ या नेफ्रॉन्स (Nephrons) पाये
जाते हैं अनेक नेफ्रॉन्स आपस में मिलकर कुछ मोटी वाहिनियाँ बनाते हैं जिन्हें
संग्रह नलिका (Collecting duct) अथवा
बिलिनी (Billini) की
वाहिनी कहते हैं।
·
एक वृक्क की सभी बिलिनी वाहिकाएँ आपस
में मिलकर वृक्क पिरामिड के शिखर पर एक चौड़ी नली में खुलती हैं जिसे वृक्क श्रोणि
(Renal pelvis) कहते
हैं। वास्तव में यह रीनल पेल्विस ही वृक्क के हाइलम में स्थित मूत्र वाहिनी की
शुरुआत है। यह पेल्विस हो पतला होकर तथा वृक्क से बाहर आकर मूत्र वाहिनी बनाता है।
·
मनुष्य के वृक्क का पेल्विस कई
शाखाओं में बँटा होता है, इसमें से बड़ी शाखाओं को मुख्य पुटक (Major calyx) तथा
छोटी शाखाओं को लघु पुटक (Minor calyx) कहते
हैं।
वृक्क
के अन्दर नेफ्रॉन्स इस प्रकार व्यवस्थित होते हैं कि इनके मैल्पीधियन कोष, समीपस्थ
कुण्डलित भाग तथा दूरस्थ कुण्डलित भाग कॉर्टेक्स में स्थित होते हैं जबकि हेनले
लूप एवं संग्रह नलिकाएँ वृक्क के केन्द्रीय भाग अर्थात् मेडुला में स्थित होते
हैं।
·
मेडुला भाग में स्थित संग्रह नलिकाएँ
हल्के रंग की धारियों के रूप में दिखायी देती हैं जिन्हें मेडुलरी किरणें (Medullary rays) कहते
हैं। वृक्क के मेडुला भाग में हेनले लूप, संग्रह
नलिकाएँ तथा संग्रह वाहिनियाँ स्थित होती हैं। इस व्यवस्था के कारण हो वृक्क को
गुहा दो भागों की बनी दिखायी देती है। आपस में मिलकर शिरिका का निर्माण करती हैं, ये
शिरिकाएँ ही आपस में मिलकर वृक्क शिरा (Renal vein) बनाती
हैं।
नेफ्रॉन्स की संरचना (Structure of Nephrons)
नेफ्रॉन्स
वृक्क की संरचनात्मक इकाई है, जो वृक्क की गुहा में स्थित संयोजी ऊतकों में
लगभग दो लाख की संख्या में रुधिर वाहिनियों, लसीका वाहिनियों, पेशी
तन्तुओं तथा तन्त्रिकाओं के साथ स्थित होती है। ये नलिकाकार तथा स्रावी प्रकृति के
होते हैं। प्रत्येक नेफ्रॉन निम्नलिखित दो भागों का बना
होता है—
1 मैल्पीघियन सम्पुट (Malpighian capsule)—
प्रत्येक
नेफ्रॉन का एक सिरा स्वतन्त्र तथा दूसरा एक नली से जुड़ा होता है। इसका स्वतंत्र
सिरा एक कप जैसी आकृति के रूप में होता है जिसे बोमन सम्पुट कहते हैं। बोमन सम्पुट
की दीवार ग्रन्थिल एपीथीलियम कोशिकाओं की बनी होती है। इस सम्पुट की गुहा में
रुधिर वाहिकाओं का एक जाल पाया जाता है, जिसे ग्लोमेरुलस या केशिकागुच्छ
कहते हैं । वास्तव में रीनल धमनी वृक्क में जाकर कई शाखाओं अर्थात् धमनिकाओं (Arteri- ole) में
बँट जाती है। इसी में से एक धमनिका बोमन सम्पुट में जाकर जाल बनाती है और पुनः
बाहर निकल जाती है। जो धमनिका सम्पुट में रुधिर ले जाती है, उसे
अभिवाही (Afferent) धमनिका
और जो बाहर लाती है उसे अपवाही (Efferent) धमनिका
कहते हैं। बोमन सम्पुट वृक्क के कॉर्टेक्स
में स्थित होते हैं।
2 स्त्रावी भाग
(Secretory portion)
नेफ्रॉन
का बोमन सम्पुट के पीछे का भाग लावी भाग कहलाता है। इसकी आन्तरिक सतह पर रोमाभी
उपकला ऊतक पाये जाते हैं। यह भाग बहुत अधिक कुण्डलित होता है और निम्नलिखित भागों
का बना है-
(a) समीपस्थ
कुण्डलित नलिका (Proximal convoluted
tubule)
बोमन
सम्पुट के पास का भाग समीपस्थ कुण्डलित नलिका (Proximal convoluted tu-
bule-P.C.T.) कहलाता है। यह भाग कॉर्टेक्स में स्थित होता है
और पीछे की ओर पतला होता जाता है।
(b) हेनले
का लूप (Loop of Henle )
P.C.T. के
बाद नेफ्रॉन का नलिकाकार 'U' के समान भाग हेनले लूप ( Henle's loop) कहलाता
है। इसकी P.C.T.
के
पास को भुजा को अवरोही लूप (Descending loop) तथा P.C.i. की
दूरस्थ भुजा को आरोही लूप (Ascending loop) कहते
हैं। हेनले का लूप वृक्क के मेडुला में स्थित होता है।
(c) दूरस्थ
कुण्डलित नलिका (Distal convoluted
tubule, D.C.T.)
नेफ्रॉन
या वृक्क नलिका का अन्तिम भाग दूरस्थ कुण्डलित नलिका (Distal convoluted tubule)
कहलाता
है। यह भाग छोटा तथा मोटा होता है और बोमन सम्पुट के पास कॉर्टेक्स में स्थित होता
है। यह भाग वृक्क में ही स्थित एक नलिका में खुलता है जिसे संग्रह नलिका (Collecting duct) कहते
हैं।
नेफ्रॉन्स
के कार्य (Functions of Nephrons) -
1. यह शारीरिक समस्थिति बनाये रखता है।
2. यह शरीर में विभिन्न द्रवों का सन्तुलन बनाये रखता है।
3. यह नाइट्रोजन उत्सर्जी पदार्थों को मूत्र के रूप में शरीर
से बाहर करता है।
4. यह
शरीर में उपस्थित अन्य उत्सर्जी लवणों, औषधियों जैसे आयोडाइड, सैन्टोनिन, आर्सेनिक
एवं जीवाणुओं को शरीर से बाहर निकालता है।
5.यह
शरीर में अम्ल-क्षार
सन्तुलन बनाये रखता है।
उत्सर्जन
की कार्यिकी या मूत्र निर्माण (URINE FORMATION)
मूत्र
निर्माण दो चरणों में पूर्ण होता है-
(A) यूरिया
का निर्माण एवं
(B) मूत्र
का निर्माण।
(B) मूत्र
निर्माण (Urine Formation)
मूत्र
निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है जो कि तीन चरणों में पूर्ण होती है-
1. अतिसूक्ष्म छनन (Ultrafiltration) –
यह
क्रिया नेफ्रॉन के बोमन सम्पुट में होती है। ग्लोमेरुलस तथा बोमन सम्पुट की महीन
भित्तियाँ आपस में सटी होती हैं और छन्ना (Filter) का
कार्य करती हैं। वृक्क धमनियों में बहता हुआ रुधिर जब एफरेन्ट धमनिकाओं (Afferent arterioles) से
होता हुआ ग्लोमेरुलस में जाता है तो इसका दाब काफी बढ़ जाता है क्योंकि (Efferent) धमनिकाओं
का व्यास अपेक्षाकृत कम होता है। दाब के कारण ग्लोमेरुलस में रुधिर की गति भी धीमी
हो जाती है। अधिक दाब के कारण केशिकागुच्छ (Glomerulus) से
रुधिर में मिली यूरिया, यूरिक अम्ल, कुछ
ग्लूकोज,
लवण तथा अन्य वर्ज्य पदार्थ विसरित होकर बोमन
सम्पुट में आ जाते हैं। बोमन
सम्पुट में छनकर
आये पदार्थों को ग्लोमेरुलस निस्यंद (Glomerular filtrate) कहते
हैं। अन्त में यह छनित पदार्थ संग्रह नलिकाओं (Collecting ducts) द्वारा
मूत्रवाहिनी में चला जाता है।
2. पुनः अवशोषण (Reabsorption ) –
उत्सर्जी
पदार्थों के साथ कुछ उपयोगी पदार्थों जैसे--ग्लूकोज, जल तथा लवण को भी ग्लोमेरुलस द्वारा छानकर अलग
कर दिया जाता है। चूंकि ये पदार्थ शरीर के लिये उपयोगी होते हैं, इस
कारण इन्हें मूत्र के साथ बाहर न करके पुनः अवशोषित कर लिया जाता है। वृक्क
नलिकाओं की एपीथीलियल कोशाएँ इन उपयोगी पदार्थों को अवशोषित कर लेती हैं तथा इसे
रुधिर केशिकाओं में डाल देती हैं। यहाँ पर पानी की अधिकांश मात्रा (लगभग
90%) भी अवशोषित
कर ली जाती है जिससे वृक्क नलिका का शेष द्रव गाढ़ा हो जाता है, अब
इसे मूत्र कहते हैं। यह मूत्र संग्रह नलिकाओं, संग्रह वाहिनियों व मूत्र वाहिनी
से होता हुआ मूत्राशय में एकत्र किया जाता है। यह मूत्र
मूत्रमार्ग (Urethra) से
होता हुआ शरीर से बाहर चला जाता है। पुनः अवशोषण की क्रिया नेफ्रॉन या वृक्क नलिका
के स्रावी भाग में होती है।
3 स्त्रावण (Secretion)
ग्लोमेरुलस
में छनन के बावजूद रुधिर में कुछ उत्सर्जी पदार्थ शेष रह जाते
हैं जिन्हें वृक्क नलिका की दीवार को कोशिकाएँ अवशोषित कर लेती हैं ।
वृक्क नलिका द्वारा अवशोषित ये वर्ज्य पदार्थ जैसे यूरिया, यूरिक
अम्ल और अमोनिया वृक्क नलिका
की कोशिकाओं से विसरित होकर नलिका के मूत्र में शामिल हो जाते हैं।
मानव मूत्र का संघटन एवं प्रकृति एवं अन्य जानकारी
मूत्र का रंग सामान्यतया हल्का पीला होता है। यह पीला रंग यूरोक्रोम (Uro- chrome) नामक वर्णक की उपस्थिति के कारण होता है।
मूत्र में एक विशेष प्रकार भी गंध पायी जाती है जो यूरीनॉड (Urinod) नामक कार्बनिक पदार्थ की उपस्थिति के कारण होती है। कुछ समय तक छोड़ देने के पश्चात् मूत्र में उपस्थित यूरिया अमोनिया में अपघटित हो जाती है, अतः इसमें अमोनिया गैस की गंध आने लगती है।
एक सामान्य वयस्क व्यक्ति में 24 घण्टे में लगभग 1000 से 1800 मिली मूत्र बनता है। कुछ पदार्थ ऐसे भी हैं जो मूत्र की मात्रा को बढ़ा देते हैं, ऐसे पदार्थों को डाइयूरेटिक्स (Diuretics) कहते हैं। चाय, कॉफी और कोको ऐसे हो पदार्थों के उदाहरण हैं।
मूत्र में 95% जल पाया जाता है। शेष 5% भाग के रूप में अनेक प्रकार के कार्बनिक एवं अकार्बनिक घटक उपस्थित होते हैं। कार्बनिक घटक के रूप में यूरिया, क्रिएटीन, क्रिएटिनीन, अमोनिया, यूरिक अम्ल, ऑक्जेलिक अम्ल, हाइपुरिक अम्ल, अमीनो अम्ल, एलेन्टॉयन, विटामिन्स, हॉर्मोन्स, एन्जाइम्स आदि पाये जाते हैं। इसी प्रकार, अकार्बनिक घटक क्लोराइड, फॉस्फेट, सल्फेट, पोटैशियम, सोडियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम, आयोडीन, आर्सेनिक अम्ल तथा लेड आदि के रूप में होते हैं।
मूत्र त्याग या मूत्रण (URINATION)
वह क्रिया जिसके द्वारा मूत्र से भरा मूत्राशय खाली होता है, मूत्र त्याग कहलाता है। यह क्रिया तंत्रिकीय क्रियाविधि (Nervous mechanism) द्वारा नियंत्रित होती है। जैसे-जैसे मूत्राशय में मूत्र भरता है, वैसे-वैसे यह फैलता जाता है। जब इसमें मूत्र का दबाव अधिक हो जाता है तो अचानक तंत्रिकीय गतिविधि प्रारंभ हो जाती है। इसके फलस्वरूप मूत्राशय की दीवार की चिकनी पेशियों (Smooth muscles) सिकुड़ने लगती हैं। इसी समय, मूत्र मार्ग की नली में पायी जाने वाली स्फिंक्टर (Urethral sphincters)/ में शिथिलन (Relaxation) की क्रिया होती है। इसके फलस्वरूप मूत्र, मूत्रमार्ग से बाहर निकल जाता है। मूत्र त्याग की क्रिया ऐच्छिक (Voluntary) अथवा अनैच्छिक (Involuntary) दोनों हो सकती है, परंतु ऐच्छिक मूत्रत्याग देर से होता है। गर्मी के दिनों में जब शरीर अधिक गर्म वातावरण में होता है तब त्वचा से बहुत अधिक पसीना निकलता है क्योंकि त्वचीय रुधिर वाहिनियाँ फैलकर चौड़ी तथा उदरीय व रोनल रुधिर वाहिकाएँ संकुचित होकर संकरी हो जाती हैं। इसके विपरीत जाड़े के दिनों में त्वचीय रुधिर वाहिकाएँ संकुचित होकर पसीना निकलने को रोक देती हैं लेकिन उदरीय और रीनल रुधिर वाहिकाएँ चौड़ी हो जाती हैं, फलतः मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है। इस प्रकार पसीने का निकलना मूत्र निर्माण से सम्बन्धित होता है। मूत्र का रासायनिक संघटन स्थिर न रहकर हमेशा बदलता रहता है फिर भी सामान्य अवस्था में कोई विशिष्ट परिवर्तन नहीं होता।
मनुष्य के अन्य उत्सर्जी अंग
वृक्क हमारे शरीर का मुख्य उत्सर्जी अंग है जो उत्सर्जन तन्त्र से सम्बन्धित होता है। इसके अलावा हमारे शरीर में कुछ अंग और होते हैं जो उत्सर्जन तन्त्र से सीधे नहीं जुड़े होते फिर भी उत्सर्जन का काम सरलतापूर्वक करते हैं।
ये
अंग निम्नलिखित हैं-
फेफड़े
(Lungs)—
वैसे
तो फेफड़ा श्वसन तंन्त्र से सम्बन्धित अंग है लेकिन यह श्वसन के साथ उत्सर्जन का
भी कार्य करता है। श्वसन की क्रिया में यह रुधिर की CO2 जो
कि एक प्रमुख उत्सर्जी पदार्थ है, को रुधिर से बाहर श्वासोच्छ्वास के दौरान करता है।
त्वचा (Skin)
अपने
सामान्य कार्यों के साथ त्वचा कुछ उत्सर्जन का कार्य भी करती है। स्तनियों जैसे
बच्च वर्ग के जन्तुओं की त्वचा में दो प्रमुख ग्रन्थियाँ-तैलीय
ग्रन्थियाँ (Sebaceous
glands) तथा स्वेद ग्रन्थियाँ (Sweat glands) पायी
जाती हैं। यह अपने तैलीय पदार्थ के साथ कुछ उत्सर्जी पदार्थों जैसे—मोम, स्टीरॉल्स, वसीय
अम्ल और
कुछ
हाइड्रोकार्बन्स को भी शरीर के ऊतकों से विसरण द्वारा ग्रहण करके बाहर कर देती है।
यकृत, प्लीहा एवं आँत
यकृत
की कोशिकाएँ आवश्यकता से अधिक अमीनो अम्लों तथा रुधिर की अमोनिया को यूरिया में
बदलकर उत्सर्जन में मुख्य भूमिका निभाती हैं। इसके अलावा यकृत तथा प्लीहा कोशिकाएँ
टूटी- फूटी
रुधिर कोशिकाओं का विखण्डन करके इन्हें रक्त प्रवाह से अलग करती हैं।
हीमोडायलिसिस
एवं कृत्रिम गुर्दा
जब
कभी वृक्क ठीक से कार्य नहीं कर पाता तब शरीर के रुधिर में यूरिया की मात्रा अचानक
बढ़ जाती है,
इस
स्थिति को यूरेमिया (Uremia) कहते हैं। ऐसे रोगियों के रुधिर की यूरिया तथा
दूसरे उत्सर्जी पदार्थों को एक उपकरण, जिसे कृत्रिम गुर्दा या वृक्क (Artificial kidney) कहते
हैं, के
द्वारा हटाया जाता है; इस क्रिया को हीमोडायलिसिस कहते हैं
डाईयूरेसिस
(Diuresis):
मूत्रस्राव की मात्रा के बढ़ जाने को डाईयूरेसिस कहते हैं। वे पदार्थ जो इसको क्रियान्वित करते हैं, उन्हें डाईयूरेटिक (Diuretics) कहते हैं।