Respiration in plants Class 11th Biology Notes in Hindi
श्वसन की परिभाषा
श्वसन प्रत्येक जीव तथा कोशिका का एक अनिवार्य जैविक लक्षण
है। इसे निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित कर सकते हैं-
"श्वसन एक जीव-रासायनिक क्रिया है, जिसमें जीव
कार्बनिक पदार्थों (जैसे-प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट
इत्यादि) को ऑक्सीकरण अपेक्षाकृत सरलतम पदार्थों में अपघटित करके ऊर्जा मुक्त करते
हैं।"
पौधों में श्वसन (Respiration in plants):
पौधों में
श्वसन-गैसों का आदान-प्रदान शरीर की सतह द्वारा विसरण (Diffusion) क्रिया से होता
है। इसके लिए ऑक्सीजन युक्त वायुमंडल से पतियों के रंध्रों (stornatas), पुराने वृक्षों
के तनों की कड़ी त्वचा (bark)
पर स्थित वातरंध्रों
(Lenticels) और अंतर कोशिकीय
स्थानों (Intercellular
spaces) द्वारा पौधों में प्रवेश करती है।
जलीय पौधे भी
विसरण क्रिया द्वारा जल से ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं एवं श्वसन क्रिया के पश्चात् CO2 गैस मुक्त करते
हैं। पौधों में गैसों के विनिमय की क्रिया-विधि बहुत ही सरल है।
पौधों में गैसों
के आदान-प्रदान (विसरण) की दिशा इनकी आवश्यकताओं तथा पर्यावरणीय अवस्थाओं पर
निर्भर करती है। दिन में श्वसन से निकली CO2 गैस का उपयोग पौधे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में करते
हैं। अतः CO2 गैस की जगह
ऑक्सीजन रंध्रों से निकलती है। रात्रि में चूंकि प्रकाश संश्लेषण की क्रिया
सम्पन्न नहीं होती है, अतः श्वसन से CO2 गैस रंध्रों से
बाहर निकलती है।
- पौधों में श्वसन की क्रिया जन्तुओं के श्वसन से भिन्न होती है।
- पौधों के प्रत्येक भाग अर्थात् जड़, तना एवं पत्तियों में अलग-अलग श्वसन होता है।
- जन्तुओं की तरह पौधों में श्वसन गैसों का परिवहन नहीं होता है।
- पौधों में जन्तुओं की अपेक्षा श्वसन की गति धीमी होती है।
श्वसनीय पदार्थ या श्वसन क्रियाधार
श्वसन की क्रिया में जिस पदार्थ का ऑक्सीकरण होता है, उसे श्वसनीय
क्रियाधार कहते हैं। सामान्यत: कार्बोहाइड्रेट (ग्लूकोज) का उपयोग श्वसनीय आधार के
रूप में होता है। जब ओलिगोसैकेराइड एवं पॉलीसेकेराइड का उपयोग होता है तब पहले
इन्हें प्रकिण्वों की सहायता से मोनोसैकेराइडों में परिवर्तित किया जाता है, जो ऑक्सीकृत होते
हैं। जब जीव शरीर में कार्बोहाइड्रेट एवं वसा दोनों की उपलब्धता समाप्त हो जाती है, तब कोशिका में
उपस्थित प्रोटीन का ऑक्सीकरण होता है। श्वसन उपयोग से पूर्व प्रोटीन को भी अमीनो
अम्लों में अपघटित कर लिया जाता है।
श्वसन अनुपात अथवा श्वसन गुणांक
श्वसन क्रिया में निकली हुई CO2 के आयतन और अवशोषित O2 के आयतन के अनुपात को श्वसन अनुपात अथवा श्वसन गुणांक (R. Q.) कहते हैं।
पौधे के अंगों का R. Q. श्वसन में विघटित होने वाले पदार्थों की रासायनिक प्रकृति पर निर्भर करता है। अतः R. Q. को माप कर यह पता लगाया जा सकता है कि श्वसन क्रिया में किस प्रकार के पदार्थ का ऑक्सीकरण हो रहा है।
R. Q. = निष्कासित CO2 का आयतन / अवशोषित O2 का आयतन
R.Q. का मान ज्ञात करके श्वसन की क्रिया में भाग लेने वाले श्वसन पदार्थ (Respiratory substrate) की प्रकृति का पता लगाया जा सकता है। R. Q. का मान गैनोंग श्वसनमापी (Ganong’s respirometer) द्वारा ज्ञात किया जाता है।
संतुलन बिंदु (कम्पनसेशन बिन्दु )
गैसीय विनिमय के दौरान दिन के समय पौधों द्वारा श्वसन
क्रिया के परिणामस्वरूप निकली CO2 प्रकाश संश्लेषण की
क्रिया में काम आ जाती है। दोपहर के समय प्रकाश संश्लेषण के तीव्र होने पर CO2 की अतिरिक्त
मात्रा वायुमण्डल से ली जाती है। सुबह एवं शाम को एक समय ऐसा होता है जब प्रकाश
संश्लेषण की क्रिया द्वारा उपयोगित CO2 एवं श्वसन की
क्रिया द्वारा निकली CO2 की मात्रा बराबर होती है। इस स्थिति में श्वसन
द्वारा निकली CO2 का प्रकाश संश्लेषण में उपयोग हो जाता है तथा प्रकाश
संश्लेषण में मुक्त O2. श्वसन में उपयोगित हो जाती है। इस स्थिति को जब
O2 तथा CO2 की पूर्ति पौधों में ही
हो जाती है, संतुलन बिन्दु कहते हैं।
ग्लाइकोलिसिस या E.M.P. पथ
इस पथ की खोज ऐम्बडेन, मैयरहॉफ एवं पारनास (Embden, Meyerhof and Parnas) नामक तीन वैज्ञानिक की थी। अतः इसे E. M. P. पथ या ग्लाइकोलिसिस कहते हैं। ग्लाइकोलिसिस श्वसन का प्रथम चरण है। इस क्रिया का आरम्भ हैक्सोज शर्करा (सामान्यतया ग्लूकोज) से होता है और अंत में पायरुविक अम्ल (3 कार्बन यौगिक) के दो अणु प्राप्त होते हैं। इस प्रकार ग्लूकोज के अनेक चरणों में क्रमबद्ध होकर पायरुविक अम्ल में विघटन को ग्लाइकोलिसिस कहते हैं। यह सम्पूर्ण क्रिया कोशिकाद्रव्य में होती है।
ग्लाइकोलिसिस निम्नलिखित चरणों में पूर्ण होती है और इसमें ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती-
प्रथम फॉस्फोरिलेशन अभिक्रिया (First phosphorylation reaction)-
(i) ग्लूकोज का फॉस्फोरिलेशन (Phosphorylation of glucose) – यह ग्लाइकोलिसिस की प्रथम अवस्था है जिसमें ग्लूकोज का अणु हेक्सोकाइनेज एन्जाइम (Hexokinase enzyme) को उपस्थिति में ATP के साथ क्रिया करके ग्लूकोज- 6- फॉस्फेट का निर्माण करता है। यहाँ पर ATP फॉस्फेट समूह के दाता (Donor) का कार्य करता है।
Hexokinase
Glucose + ATP → Glucose-6-phosphate + ADP
चूंकि उपर्युक्त
किया में हेक्सोज शर्करा के साथ फॉस्फेट समूह जुड़ता है, अतः इसे
फॉस्फोरिलेशन (Phosphoryiation) कहते हैं।
(ii) ग्लूकोज - 6-फॉस्फेट का समाव्यवीकरण
ग्लूकोज-6-फॉस्फेट, फॉस्फोक्सो आइसोमेरेज एन्ज़ाइम की उपस्थिति में अपने समावयवी अणु फ्रक्टोज-6- फॉस्फेट (Fructose 6 phosphate) में बदल जाता
2 द्वितीय फॉस्फोरिलेशन अभिक्रिया (Second phasphorylation reaction)-
फ्रक्टोज-6-फॉस्फेट ATP के एक अणु के साथ फॉस्फोहेक्सोकाइनेज एन्जाइम की उपस्थिति में क्रिया करके फ्रक्टोज-1, 6-डाइफॉस्फेट का निर्माण करता है।
3 विखण्डन अभिक्रिया (Cleavage reaction)-
(i) फ्रक्टोज-1, 6-डाइफॉस्फेट का विखण्डन
उपर्युक्त क्रिया
में बना फ्रक्टोज-1, 6-डाइफॉस्फेट, ऐल्डोलेज (Aldolase)
एन्जाइम की
उपस्थिति में क्रिया करके 3- फॉस्फोग्लिसरैल्डिहाइड (3-PGALD) एवं
डाइहाइड्रॉक्सी ऐसीटोन फॉस्फेट (DHAP) का एक-एक अणु बनाता है।
(ii) DHAP का समावयवीकरण (Isomerization of DHAP)—
फॉस्फोट्रायोज आइसोमेरेज एन्जाइम की
उपस्थिति में डाइहाइड्रॉक्सी ऐसीटोन फॉस्फेट (DHAP) अपने समावयवी
यौगिक 3- फॉस्फोग्लिसरैल्डिहाइड (3-PGAL) में परिवर्तित हो
जाता है। इस प्रकार ग्लूकोज के एक अणु से 3-PGAL के दो अणु
प्राप्त हो जाते हैं।
4 फॉस्फोरिलेशन एवं ऑक्सीडेटिव डिहाइड्रोजिनेशन
(i) 3-PGAL का फॉस्फोरिलेशन (Phosphorylation of 3-PGAL)-
3-फॉस्फोग्लिसरैल्डिहाइड (3-PGAL) के दो अणु H3PO4 के दो अणुओं के साथ क्रिया करके 1, 3- डाइ फॉस्फोग्लिसरैल्डिहाइड (1, 3-diPGAL) के दो अणुओं का निर्माण करते हैं।
(ii) 1, 3-diPGAL का डिहाइड्रोजिनेशन –
1,3-diPGAL के दो अणु
ट्रायोज फॉस्फेट डिहाइड्रोजिनेज (Triose phosphate dehydrogenase) एन्जाइम की
उपस्थिति में NAD के दो अणुओं के साथ क्रिया करके 1, 3-डाइफॉस्फोग्लिसरिक
अम्ल (1, 3-diPGA) एवं NADH, के दो-दो अणुओं
का निर्माण करते हैं।
5 ATP उत्पादन-I
1,3-डाइफॉस्फोग्लिसरिक अम्ल (1, 3-diPGA) के दो अणु फॉस्फोग्लिसरिक ट्रांस फॉस्फोरिलेज एन्जाइम की उपस्थिति में ADP के दो अणुओं से क्रिया करके 3-फॉस्फोग्लिसरिक अम्ल (3-PGA) के दो अणु एवं ATP के दो अणुओं का निर्माण करते हैं।
6 3-PGA का समावयवीकरण
3-PGA के दो अणु फॉस्फोग्लिसरोम्यूटेज एन्जाइम की उपस्थिति में अपने समावयवी यौगिक 2-फॉस्फोग्लिसरिक अम्ल (2-PGA) के दो अणु बनाते हैं ।
7. 2-PGA का डिहाइड्रोजिनेशन
2-फॉस्फोग्लिसरिक अम्ल (2-PGA) के दो अणु इनोलेज (Enolase) एन्जाइम की उपस्थिति में 2-फॉस्फोइनॉल पायरुविक अम्ल (2-Phosphoenolpyruvic acid, 2- PEPA) के दो अणुओं में बदल जाते हैं।
8 PEP से फॉस्फेट समूह का ADP में स्थानान्तरण
पायरुविक काइनेज एन्जाइम की उपस्थिति में 2-PEPA के दो अणु ADP के दो अणुओं के साथ क्रिया करके पायरुविक अम्ल एवं ATP के दो अणुओं का निर्माण करते हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त क्रमिक जैव-रासायनिक क्रियाओं के
फलस्वरूप ग्लूकोज के एक अणु के विघटन से पायरुविक अम्ल (Pyruvic
acid) के दो अणु प्राप्त हो जाते हैं।
ग्लाइकोलिसिस में ऊर्जा का उत्पादन
1. सम्पूर्ण ग्लाइकोलिसिस में हेक्सोज शर्करा के फॉस्फोरिलेशन में ATP के दो अणु व्यय होते हैं।
2. सम्पूर्ण ग्लाइकोलिसिस में NAD+ के दो अणु उपयोग
होते हैं और NADH, के अणु बनते हैं। जब यह NADH, इलेक्ट्रॉन संवहन
तन्त्र (ETS) में चला जाता है तब ऑक्सीजन का एक अणु प्रयोग में आता है और
6 ATP (प्रत्येक NADH, से 3 ATP) बनते हैं।
चूँकि ग्लाइकोलिसिस में 2 ATP का उपयोग शर्करा के फॉस्फोरिलेशन में हो जाता है अतः इस क्रिया में कुल 8 ATP का लाभ होता है।
किण्वन (FERMENTATION)
किण्वन वह क्रिया है, जिसमें सूक्ष्मजीव ग्लूकोज या शर्करा का अपूर्ण विघटन (Incomplete oxidation) करके CO2 तथा सरल कार्बनिक पदार्थों जैसे- एथिल ऐल्कोहॉल, लैक्टिक एसिड, एसीटिक एसिड, मैलिक एसिड, ब्यूटिरिक एसिड, ऑक्जेलिक एसिड, साइट्रिक एसिड इत्यादि का निर्माण करते हैं। इस क्रिया के फलस्वरूप कुछ ऊर्जा भी मुक्त होती है।
वास्तव में किण्वन अनॉक्सी श्वसन का ही एक प्रकार है, जो सूक्ष्मजीवों द्वारा सम्पादित होता है. सूक्ष्मजीव विभिन्न प्रकार के प्रकिण्व पैदा करते हैं, जो विकसित होकर कोशिका से बाहर आ जाते हैं और जिस माध्यम में ये रहते हैं उसकी शर्करा को अपघटित कर देते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि किण्वन कोशिका से बाहर होने वाला अनॉक्सी श्वसन है।
किण्वन का महत्त्व
किण्वन क्रिया का प्रयोग आज से लगभग 6,000 वर्ष ईसा पूर्व ही ऐल्कोहॉल बनाने में किया जाता था, लेकिन उस समय इसकी विस्तृत जानकारी नहीं थी।
1. इस तकनीक से ऐल्कोहॉल, बीयर, ताड़ी इत्यादि का उत्पादन किया जाता है।
2. इस तकनीक द्वारा कई महत्त्वपूर्ण कार्बनिक यौगिकों जैसे-एसीटिक अम्ल, ब्यूटिरिक अम्ल आदि का उत्पादन किया जाता है।
3. इस तकनीक का उपयोग बेकरी तथा सिरका उद्योग में किया जाता है।
4. जूट, सन, तम्बाकू, चाय, चमड़ा इत्यादि
उद्योग में भी इस तकनीक का प्रयोग किया जाता है।
ऑक्सी श्वसन से संबन्धित महत्वपूर्ण बिन्दु
1. इनमें ऑक्सीजन की आवश्यकता पड़ती है।
2. इसमें भोज्य पदार्थों का पूर्णरूप से ऑक्सीकरण होता है।
3. इसका अन्तिम उत्पाद CO2 और जल है।
4. इसके फलस्वरूप अधिक मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न होती है।
5. इससे सम्बन्धित प्रकिण्व मुख्यतः माइटोकॉण्ड्रिया में स्थित होते हैं, परन्तु श्वसन क्रिया कोशिकाद्रव्य तथा माइटोकॉण्ड्रिया में पूर्ण होती है।
6. अधिकांश जीवों में यह क्रिया होती रहती है।
7. इसे निम्नलिखित समीकरण से व्यक्त कर सकते हैं- C6H12O6 + 602 → 6CO2 + 6H2O+673 kcal
8. 38 ATP अणुओं का लाभ होता है।
9. ग्लूकोज का कार्बन (C), CO, के रूप में बाहर
निकलता है।
ऑक्सीडेटिव फॉस्फोरिलेशन
ग्लाइकोलिसिस, क्रेब्स चक्र और इलेक्ट्रॉन स्थानान्तरण श्रृंखला के कुछ चरणों में इतनी अधिक कर्जा मुक्त होती है, जिससे ADP, अकार्बनिक फॉस्फेट (iP) से क्रिया करके ATP में बदल जाती है, चूंकि यह क्रिया पदार्थों के ऑक्सीकरण के कारण होती है और इसमें फॉस्फेट अणु ADP अणु से जुड़ता है, इस कारण इसे ऑक्सीडेटिव फॉस्फोरिलेशन कहते हैं। ऑक्सीडेटिव फॉस्फोरिलेशन की क्रिया माइटोकॉण्ड्रिया के क्रिस्टी (Cristae) में होती है।
एम्फीबोलिक पथ (AMPHIBOLIC PATHWAY)
एम्फीबोलिक शब्द का उपयोग ऐसे जैवरासायनिक पथों के लिए किया
जाता है जिसमें कैटाबोलिज्म (Catabolism) एवं एनाबोलिज्म (Anabolism)
दोनों
प्रक्रियाएँ होती हैं। कैटाबोलिज्म की प्रक्रिया में जटिल यौगिक टूटकर ऊर्जा
उत्पन्न करते हैं जबकि एनाबोलिज्म की प्रक्रिया में सरल यौगिकों से जटिल यौगिकों
का निर्माण होता है। श्वसन एक कैटाबोलिक प्रक्रिया है जबकि प्रकाश संश्लेषण एक
एनाबोलिक प्रक्रिया है।
पौधे श्वसन की प्रक्रिया में वसा एवं प्रोटीन का उपयोग
श्वसन पदार्थ के रूप में करते हैं। शुद्ध वसा एवं प्रोटीन का सीधा उपयोग श्वसन की
प्रक्रिया में नहीं होता है। ये पदार्थ एक माध्यमिक पदार्थ (Substrate)
के रूप में
ग्लाइकोलिसिस एवं क्रेब्स चक्र में प्रवेश करते हैं। इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम
वसा का विघटन ग्लिसरॉल एवं वसीय अम्लों में होता है। यह ग्लिसरॉल PGAL (फॉस्फोग्लिसरल्डिहाइड
ग्लाइकोलिसिस का माध्यमिक उत्पाद) में बदल जाता है। वसीय अम्ल एसीटिल को एन्जाइम A (जो कि क्रेब्स
चक्र का माध्यमिक यौगिक है) में विघटित हो जाता है। इसी प्रकार प्रोटीन प्रोटिएज
एन्जाइम के द्वारा अमीनो अम्ल में टूट जाता है। ये अमीनो अम्ल बाद में क्रेब्स
चक्र के विभिन्न माध्यमिक यौगिकों जैसे—पायरुवेट में बदल
जाते हैं। इस प्रकार पौधे ग्लूकोज के साथ-साथ वसा एवं प्रोटीन को भी श्वसन पदार्थ के रूप
में ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए करते हैं।
जब पौधों को प्रोटीन या कार्बोहाइड्रेट्स की आवश्यकता होती
है तब वे श्वसन पथ से कुछ पदार्थ लेकर इनका निर्माण करते हैं। ग्लाइकोलिसिस के समय
बना PEP (फॉस्फोइनॉल पाइरुविक अम्ल) का उपयोग प्रोटीन अथवा
कार्बोहाइड्रेट संश्लेषण के लिए किया जाता है। इसी प्रकार जब पौधे को वसा की
आवश्यकता होती है तब क्रेब्स चक्र से एसिटिल (Co-A) लेकर इसका
संश्लेषण किया जाता है। इस प्रकार श्वसन पथ कैटाबोलिक एवं एनाबोलिक दोनों ही
प्रक्रियाओं में आवश्यक होता है। अतः इसे एम्फीबोलिक पथ (Amphibolic
path) कहा जाता है।
श्वसन क्रिया को प्रभावित करने वाले कारक
श्वसन की क्रिया को अनेक कारक प्रभावित करते हैं जिन्हें दो भागों, बाह्य कारक एवं आन्तरिक कारकों में बाँटा जा सकता है।
1. बाह्य कारक (External Factors)
(1) तापमान (Temperature)-
यह श्वसन क्रिया को प्रभावित करने वाले कारकों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है। सामान्यतः 0°C से 30°C ताप तक प्रत्येक 10°C ताप बढ़ाने पर श्वसन की दर 2-2-5 गुनी बढ़ जाती है। 30°C से ऊपर ताप बढ़ाने से प्रारम्भ में श्वसन दर बढ़ती है, लेकिन शीघ्र ही घट जाती है। 0°C से कम तापमान पर श्वसन की दर अत्यन्त कम हो जाती है क्योंकि इस समय एन्जाइम्स की सक्रियता क्रम हो जाती है। यद्यपि कुछ पौधे - 20°C पर भी श्वसन करते हैं।
(2) ऑक्सीजन (Oxygen) -
श्वसन एक ऑक्सीकरण अभिक्रिया है जिसके लिए ऑक्सीजन अति आवश्यक है। वातावरण में 2-4% तक ऑक्सीजन रहने पर श्वसन क्रिया ठीक प्रकार से होती रहती है, लेकिन इससे कम मात्रा होने पर श्वसन की दर कम हो जाती है।
(3) प्रकाश (Light) -
यह श्वसन क्रिया पर प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव नहीं डालता लेकिन प्रकाश अधिक तीव्र होने पर पौधों में प्रकाश संश्लेषण की दर बढ़ जाती है जिससे अधिक मात्रा में कार्बोहाइड्रेट्स (ग्लूकोज) बनता है। यह ग्लूकोज श्वसन पदार्थ की तरह कार्य करता है जिससे श्वसन की दर बढ़ जाती है।
(4) कार्बन डाइऑक्साइड (CO2)-
वायुमण्डल में CO2 की सान्द्रता बढ़ने पर श्वसन की दर घट जाती है। इसी प्रकार भूमि में CO2 की सान्द्रता अधिक हो जाने पर बीजों के अंकुरण एवं जड़ों की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है क्योंकि उनकी श्वसन दर कम हो जाती है।
(5) जल ( Water ) -
जल की मात्रा बढ़ाने से एक सीमा तक श्वसन की दर बढ़ जाती है। जल श्वसन दर को कई प्रकार से प्रभावित करता है-इसके द्वारा श्वसन की क्रिया में भाग लेने वाले एन्जाइम्स सक्रिय हो जाते हैं। जीवद्रव्य में ऑक्सीजन का प्रसरण बढ़ जाता है तथा संचित शर्करा अन्य शर्कराओं में बदल जाती है जो श्वसन में सहायक होती है। इस प्रकार जल की अधिकता से श्वसन की दर बढ़ जाती है।
(6) क्षति (Injury)-
पौधों के घायल ऊतक में श्वसन दर तीव्र हो जाती है क्योंकि क्षतिग्रस्त क्षेत्र की कुछ कोशिकाएँ विभज्योतकी (Meristematic) होकर तीव्रता से विभाजित होने लग जाती है।
II. आन्तरिक कारक (Internal Factors)
उपर्युक्त बाह्य कारकों के अलावा कुछ आन्तरिक कारक भी श्वसन दर को प्रभावित करते हैं जो निम्नलिखित हैं-
(1) भोज्य पदार्थ (Food material)
कोशिकाओं में भोज्य पदार्थों की मात्रा अधिक होने पर श्वसन की दर भी अधिक होती है।
(2) जीवद्रव्य की मात्रा (Quantity of protoplasm) -
जिन कोशिकाओं में जीवद्रव्य की मात्रा अधिक होती है, उनकी श्वसन दर भी
अधिक होती है। यही कारण है कि नवजात एवं विभज्योतक कोशिकाओं की श्वसन दर अधिक होती
है।
किण्वन एवं अनॉक्सी श्वसन में अन्तर
किण्वन (Fermentation)
1. किण्वन की क्रिया कोशिका के बाहर होती है।
2. यह क्रिया सूक्ष्मजीवों, जीवाणुओं तथा कवकों द्वारा होती है।
3. अल्प मात्रा में O2 की उपस्थिति किण्वन की दर को बढ़ा देती है।
4. किण्वन जीवों द्वारा सम्पन्न होने वाली अजैविक क्रिया है।
5. इस क्रिया में माइटोकॉण्ड्रिया की आवश्यकता नहीं पड़ती।
अनॉक्सी श्वसन (Anaerobic Respiration)
1. अनॉक्सी श्वसन कोशिका के अन्दर होती है।
2. अनॉक्सी श्वसन पौधों, बीजों एवं फलों की गहराई में तथा
जन्तुओं में O2 की अनुपलब्धता के समय होती है।
3. अनॉक्सी श्वसन O2 की पूर्णतः अनुपस्थिति में होता है।
4. अनॉक्सी श्वसन जीवों में होने वाली जैविक क्रिया है।
5. इस क्रिया हेतु माइटोकॉण्ड्रिया की सलग्नता
आवश्यक होती है ।
क्रेब्स चक्र या ट्राइकार्बोक्सिलिक अम्ल चक्र सिट्रिक अम्ल चक्र
(KREBS CYCLE OF TRICARBOXYLIC ACID CYCLE)
ग्लाइकोलिसिस (Glycolysis) क्रिया के
फलस्वरूप बना पायरुविक अम्ल (Pyruvic acid) ऑक्सीजन की
उपस्थिति में क्रेब्स चक्र के द्वारा ऑक्सीकृत होता है। इस क्रिया का वर्णन
सर्वप्रथम क्रेब (Krebs) ने सन् 1937 में किया ।
इसलिए इसे क्रेब्स चक्र कहते हैं। इसे T.C.A. चक्र (Tricarboxylic
Acid Cycle) अथवा साइट्रिक अम्ल चक्र (Citric Acid Cycle) भी कहते हैं, क्योंकि इस
क्रिया के फलस्वरूप ट्राइकार्बोक्सिलिक अम्लों (Tricarboxylic acids) का निर्माण होता
है यह सम्पूर्ण क्रिया माइटोकॉण्ड्रिया (Mi- tochondria) के अन्दर
सम्पादित होती है, क्योंकि इस क्रिया से सम्बन्धित समस्त एन्जाइम
माइटोकॉण्ड्रिया के अन्दर पाये जाने वाले क्रिस्टी (Cristae) में पाये जाते
हैं।
ग्लाइकोलिसिस (Glycolysis) क्रिया माइटोकॉण्ड्रियल मैट्रिक्स में निम्न चरणों में सम्पन्न होती हैं-
(1) सबसे पहले ऐसीटाइल Co-A माइटोकॉण्ड्रिया में उपस्थित ऑक्सेलोऐसीटिक अम्ल से संयोग करके सिट्रिक अम्ल एवं CoA का निर्माण करता है। इस क्रिया में सिट्रेट सिन्थेटेज एन्जाइम एक उत्प्रेरक का कार्य करता है।
(2) अब सिट्रिक अम्ल का जल वियोजन होता है जिससे सिस ऐकोनिटिक अम्ल बनता है। यह जल का एक अणु ग्रहण कर आइसोसिट्रिक अम्ल में बदल जाता है। ये क्रियाएँ एकोनाइटेज एन्जाइम द्वारा उत्प्रेरित होती है।
(3) अब आइसोसिट्रिक अम्ल से ऑक्सीकरण द्वारा ऑक्सेलोसक्सीनिक अम्ल बनता है तथा NAD NADH2 में बदल जाता है। इस क्रिया को आइसोसिट्रेट डीहाइड्रोजिनेज एन्जाइम उत्प्रेरित करता है।
(4) ऑक्सेलोसक्सीनिक अम्ल से कार्बन डाइऑक्साइड का वियोजन होकर α-कीटोग्लूटेरिक अम्ल बनता है। क्रिया का उत्प्रेरण कार्बोक्सीलेज एन्जाइम द्वारा होता है।
(5) इसके बाद α-कीटोग्लूटेरिक अम्ल का ऑक्सीडेटिव डीकार्बोक्सीलेशन होता है तथा सक्सीनिल Co-A एवं CO2 बनती है। इस क्रिया में α कीटोग्लूटेरिक डीहाड्रोजिनेज एन्जाइम उत्प्रेरण का कार्य करता है।
(6) सक्सीनिल Co-A के जलीय अपघटन द्वारा सक्सीनिक अम्ल बनता है। यह क्रिया सक्सीनेट थायोकाइनेज द्वारा उत्प्रेरित होती है।
(7) सक्सीनिक अम्ल का सक्सीनिक डाइड्रोजनेज एन्जाइम की उपस्थिति में ऑक्सीकरण हो फ्यूमेरिक अम्ल बनता है। इस क्रिया में फ्लेविन ऐडीनिन डाइन्यूक्लियोटाइड (FAD) हाइड्रोजन ग्राही की तरह काम करता है।
(8) अब फ्यूमेरिक अम्ल फ्यूमेरिक एन्जाइम की उपस्थिति में जल से जुड़कर मैलिक अम्ल में बदल जाता है।
(9) मैलिक अम्ल से H 2 वियोजित होकर ऑक्सेलोऐसीटिक अम्ल व NADH 2 बनता है। इस क्रिया का उत्प्रेरण मैलिक डीहाइड्रोजिनेज एन्जाइम द्वारा होता है।
क्रिया के अन्त में बना ऑक्सेलोऐसीटिक अम्ल, ऐसीटाइल Co-A से मिलकर चक्र को पुनः आरम्भ करता है।
इस प्रकार, पाइरुविक अम्ल के प्रत्येक अणु के ऑक्सीकृत
होने पर CO2 के कुल तीन अणु उत्पन्न होते है। अतः ग्लूकोज
के एक अणु के पूर्ण ऑक्सीकरण से कुल 6 अणु CO2 निकलते हैं।