विकास की प्रक्रिया | डार्विन का प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त| Darwin's theory of natural selection

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विकास की प्रक्रिया, डार्विन का प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त

विकास की प्रक्रिया | डार्विन का प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त| Darwin's theory of natural selection

विकास की प्रक्रिया 

  • विकास प्रक्रिया के अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जा चुका है। उनमें से कुछ जैसे लैमार्क का " अर्जित लक्षणों की आनुवंशिकता" का सिद्धान्त व डी व्रिज का उत्परिवर्तन का सिद्धान्त अब केवल ऐतिहासिक महत्व के रह गए हैं।

 

डार्विन का प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त

  • डार्विन का प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त आज भी मान्यता प्राप्त है लेकिन आनुवंशिकी (Genetics) में प्रगति के साथ इसका परिष्करण हुआ और यह आधुनिक संश्लेषी सिद्धान्त" के रूप में विकसित हुआ जो कि वर्तमान समय में सर्वाधिक मान्यता प्राप्त विकास का सिद्धान्त है।


डार्विन का प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त-

  • एक अंग्रेज वैज्ञानिकचार्ल्स डार्विन (1809-1882) ने प्राकृतिक चयन के सिद्धान्त के आधार पर विकास प्रक्रिया की व्याख्या कीवह आज भी दो बहुत महत्त्वपूर्ण योगदानों के कारण विकास का जन्मदाता माना जाता है- उन्होंने सुझाव दिया कि (i) समस्त प्राणी पूर्वजता द्वारा एक दूसरे से संबंधित हैं व (ii) उन्होंने विकास की एक प्रक्रिया सुझाई और इसका नाम प्राकृतिक वरण (natural selection ) दिया।

 

  • डार्विन के अनुसारजीव बड़ी संख्या में संतति पैदा करते हैं जो जीवित रह सकने वाले जीवों से कहीं अधिक होते हैं। क्योंकि पर्यावरणीय संसाधन सीमित हैं अतः उनमें अस्तित्व के लिए संघर्ष होता है। जीवन संघर्ष मेंकेवल वे ही जीव बचे रहते हैं जिनमें लाभकारी अनुकूलन हो चुके होते हैंबच जाते हैं और जनन करते हैं जबकि हानिकारी अनुकूलन वाले जीव प्रकृति से हटा दिए जाते हैं। डार्विन ने इसे प्राकृतिक वरण कहा ।

 

  • डार्विन के अनुसार जैसे-जैसे पर्यावरण बदलता है वैसे-वैसे प्रकृति में नए अनुकूलनों का वरण होता है और कई पीढ़ियों के पश्चात् एक जाति को दूसरी जाति में परिवर्तित करने के लिए पर्याप्त अभिलक्षण विकसित हो चुके होते हैं ताकि एक नई जाति बन जाए ( जातियों की उत्पत्ति) ।

 

  • डार्विन ने विविधता की बात की लेकिन उन्हें विविधता के स्रोतों की जानकारी नहीं थी । आनुवंशिकी में प्रगति के साथ विविधता के स्रोतों की खोज भी हुई और डार्विन के प्राकृतिक वरण के मूल सिद्धान्त में थोड़ा परिवर्तन कर दिया गया। इस नए सिद्धान्त को नव डार्विनाद या आधुनिक संश्लेषी सिद्धान्त कहा गया।

 

इस सिद्धान्त के अनुसार : 

1. विकास की इकाई 'जनसंख्या' (या समष्टि) है जिसका स्वयं का अपना जीन पूल होता है-जीन पूल किसी भी के सभी विभिन्न जीनों का एक समूह है। 

2. किसी भी समष्टि के व्यष्टियों में प्रदर्शित होने वाले वंशागत आनुवंशिक परिवर्तन विकास का आधार होते हैं। 

यह वंशागत परिवर्तन अथवा विविधताएँ जीनों में या गुणसूत्रों अथवा उनके पुनर्योजनों में होने वाले छोटे-छोटे उत्परिवर्तनों के कारण होते हैं।

 

3. प्राकृतिक वरण द्वारा उन परिवर्तनों का चयन कर लिया जाता है जो प्राणी को पर्यावरण के प्रति अनुकूलन उत्पन्न करने में सहायक होते हैं।

 

4. किसी समष्टि की संघटना में होने वाले उसे किसी आनुवंशिकीय परिवर्तनजिसका चयन प्राकृतिक वरण द्वारा कर लिया जाता हैके ही कारण नई जाति (स्पीशीज़) बनती है। चूंकि विविधताओं और प्राकृतिक वरण की पारस्परिक क्रिया के कारण अनुकूल आनुवंशिक परिवर्तन वाली संतान अधिक पैदा होती हैं। इन्हें 'विभेदी जननकहा जाता है।

 

5. एक बार विकसित हो जाने पर 'जनन विलगनजातियों की विशिष्टता बनाए रखती हैं।

 

जैव विकास के मूलभूत कारक 

प्राकृतिक वरण द्वारा विविधता में चयन प्रक्रिया होने पर विकास होता है। जनन विलगन के कारण जातियों की विशिष्टता बनी रहती है। इसलिए जैव विकास के मूलभूत कारक हैं : (i) विविधता (ii) प्राकृतिक वरण (iii) विलगन

 

जैव परिवर्तन के विभिन्न स्रोत 

समष्टि के एक सदस्य में विविधता उत्पन्न होती है और यदि विविधता अनुकूल होती है तो यह विविधता प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया के जरिए होने वाले विभेदी जनन द्वारा पूरी समष्टि में आ जाती है। विविधता निम्न में से किसी कारण से हो सकती है :

 

1. उत्परिवर्तन - 

यह एक आकस्मिक आनुवंशिक परिवर्तन है। उत्परिवर्तन एक जीन में परिवर्तन (जीन उत्परिवर्तन या बिंदु उत्परिवर्तन) हो सकता है या यह कई जीनों को प्रभावित कर सकता है ( गुणसूत्री उत्परिवर्तन) ।

 

2. आनुवंशिक पुनर्योजन - 

यह जनन लैंगिक रूप से पुनरुत्पादन करने वाले जीवों में प्रत्येक बार जनन करने पर होता है। युग्मज निर्माण में माता-पिता के गुणसूत्र व इस प्रकार जीन यादृच्छिक रूप से मिलते हैं। इसीलिए समान माता-पिता की संतानें माता-पिता के जीन के विभिन्न संयोजनों के कारण भिन्न होती हैं। अर्धसूत्रण के पश्चात् युग्मक निर्माण के समय जब जीन - विनिमय (क्रॉसिंग - ओवर) होता हैतब भी विविधता आती है।

 

3. जीन प्रवाह - 

लैंगिक जनन से निकट संबंधी स्पीशीजों के जीनों के मिश्रण की संभावना की स्थिति में जीन प्रवाह होता है।

 

4. आनुवंशिक विचलन-

बड़ी समष्टि से अलग हुई किसी छोटी समष्टि में ऐसा होता है। बड़ी समष्टि के केवल प्रतिनिधि जीन ही विद्यमान रहते हैं जिनमें सही समय पर परिवर्तन के परिणामस्वरूप इन उपस्पीशीजों या स्पीशीजों की छोटी समष्टि विकसित हो सकती है।

 

प्राकृतिक वरण 

आप इस पाठ में प्राकृतिक वरण के बारे में पहले से ही जान चुके हैं। यह डार्विन का विचार थाआधुनिक संश्लेषी सिद्धान्त में प्राकृतिक वरण ''जीनों के विभेदित जनन" के लिए उत्तरदायी माना जाता हैजिसका आशय यह हुआ कि एक समष्टि में लाभकारी जीनों का अधिक जनन होता है। 

प्राकृतिक वरण के अब कई क्रियात्मक स्वरूप उपलब्ध हैं। नीचे ऐसे तीन उदाहरण दिए गए हैं

 

उदाहरण 1: DDT (डी.डी.टी.) प्रतिरोधी या प्रतिरोधक मच्छर 

लगभग 50 वर्ष पूर्व मच्छरों की जनसंख्या डी.डी. टी. के प्रयोग से नियंत्रित की जाती थी। उसके बाद यह पाया गया कि डी.डी.टी. के प्रयोग से मच्छर नहीं मर रहे थे। डी.डी.टी. प्रतिरोधी मच्छर प्रकट हो गए। हुआ यह था कि जीन उत्परिवर्तन के परिणामस्वरूप मच्छरों में डी.डी.टी. के विरुद्ध प्रतिरोध क्षमता का विकास हो गया। जहाँ डी. डी. टी. अन्य मच्छरों को मार देती थीजीन उत्परिवर्तन हुए मच्छर जीवित रह जाते थे और कुछ ही पीढ़ियों के अंदर इन मच्छरों की जनसंख्या ने डी. डी. टी. संवेदनशील मच्छरों को प्रतिस्थापित कर दिया। दूसरे शब्दों में प्राकृतिक वरण की क्रिया के परिणामवरूप डी.डी. टी. प्रतिरोधी मच्छरों का 'विभेदिततः जननहुआ।

 

उदाहरण 2 घासों में धातु सहनशीलता 

भारी धातुओं का प्रयोग करने वाले कुछ औद्योगिक इकाइयों के समीप मिट्टी में कभी-कभी कुछ धातु अवशेष एकत्रित हो जाते हैं। विषैले होने के कारण वे घासों को नष्ट कर देते हैं। तथापि कुछ समय पश्चात् प्रतिरोधी घासें प्राकृतिक वरण व आनुवंशिक विविधता की प्रक्रिया द्वारा विकसित हो जाती हैं। 

ऊपर के उदाहरण से क्या आप भारी धातु सहनशीलता वाली घासों के विकास की व्याख्या कर सकते हैं?

 

उदाहरण 3 औद्योगिक अतिकृष्णता (Industrial melanism) 

प्राकृतिक वरण का आम तौर पर उद्धृत किए जाने वाला उदाहरण-पपर्ड मॉथ ( शलभ)बिस्टन बेटुलेरिया का है। इस मॉथ के पंख हल्के रंग के होते हैं और इसमें घरों या पेड़ों पर उगने वाली शैवाल से (जिन पर यह पाया जाता है) मेल खाते हुए रंग के चकत्ते होते हैं। यदि मॉथ का उत्परिवर्तित रूप काले रंग का रहा होतो यह सुस्पष्ट होने के कारण (काले रंग के पंखों के कारण) पक्षियों का आहार बन गया हो। ऐसा ब्रिटिश उपद्वीप में औद्योगिक क्रांति से पूर्व देखा गया था। औद्योगिक क्रांति के पश्चात्काले रंग के पंखों के लिए उत्तरदायी के लिए कालिख से ढ़की मकानों की दीवारों पर उगने वालीशैवाल अनुकूल सिद्ध हुई। प्राकृतिक वरण स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने वाले चितकबरे मॉथों को खाने वाली पक्षियों के माध्यम से कार्यकारी हुआ जिसके परिणामस्वरूप हल्के रंग के चितकबरे पंखों वाले मॉथ काले प्रकार के द्वारा प्रतिस्थापित हो गए  ऐसे बहुत से उदाहरण है जहाँ पर मानवीय गतिविधियों के परिणामस्वरूप पर्यावरण में बदलाव आया और प्राकृतिक वरण ने अपनी भूमिका निभाई। लेकिन यह भी एक स्थापित तथ्य है कि लाखों वर्षों की अवधि की जैव विविधताविभिन्नता व प्राकृतिक चयन की पारस्परिक क्रिया का परिणाम है।

 


 

(iii) जनन - विलगन की भूमिका 

  • एक बार विभिन्नता व प्राकृतिक वरण के प्रभाव के परिणामस्वरूप पैतृक स्पीशीज़ों से नई स्पीशीज़ों के बन जाने के बादजनन- अवरोधक दो स्पीशीज़ों के जनन द्वारा जीनों के विनिमय को रोकते हैं।

 

  • इस प्रकार दो संबंधित स्पीशीजें एक-दूसरे से संगम कर जनन नहीं कर सकती और अलग-अलग बनी रहती हैं। विलगन का अर्थ है अलगाव और जनन-विलगन का आशय है कि दो स्पीशीज़ द्वारा सफल जनन नहीं होने दिया जाता है और ये आनुवंशिक रूप से एक-दूसरे से भिन्न रखी जाती हैं। 

 

पारिस्थितिक विलगन 

  • दो स्पीशीज़ों के एक-दूसरे से भौगोलिक विलगन या भौगोलिक रूप से अलग-अलग क्षेत्रों में रहने के कारण समागम करने में असमर्थता ।

 

विलगन 

  • स्पीशीज़ों के जनन अंगों के विभिन्न समयों में परिपक्व होने के कारण समागम न हो पाना ।

 

स्वाभाविकी ( व्यावहारिकीय) विलगन

  • पक्षियों की दो स्पीशीज़ों के स्वरों अथवा मछलियों की दो स्पीशीज़ों में रंगभेद इतना अलग होता है कि एक स्पीशीज़ों की मादा केवल अपनी ही स्पीशीज़ के नर को पहचान पाती है।

 

यांत्रिक विलगन 

  • (मादा व नर) जनन अंगों में अंतर होने के कारण उनमें संगम नहीं हो पाता है।

 

शरीर क्रियात्मक विलगन: 

  • एक स्पीशीज़ के शुक्राणु दूसरी स्पीशीज़ के मादा जनन- पथ में जीवित नहीं रह पाते हैं।

 

युग्मज व परिवर्धनात्मक

यदि उपरोक्त सभी विधियाँ असफल हो जाती हैं और दो विभिन्न स्पीशीज़ों के बीच लैंगिक संयुग्मन के परिणामस्वरूप एक वर्णसंकर युग्मज का निर्माण हो जाता है तो वह कुछ समय पश्चात् नष्ट हो जाता है। यदि वह कुछ समय तक जीवित भी रहता है तो परिवर्धन के दौरान इसकी मृत्यु हो जाती है।

 

संकर बंध्यता 

घोड़ी व गधे की संतति खच्चर इसका एक अच्छा उदाहरण है। यह एक सामान्य जीवन जीता है लेकिन बंध्य (जनन अक्षम ) है और जनन नहीं कर सकता।

 

F2 विभंग (breakdown) 

बहुत ही दुर्लभ मामलों में उपरोक्त सभी विधियाँ असफल हो जाती हैं और संकर (भिन्न स्पीशीज़ों के माता-पिता की संतान) जननक्षम (या अबंध्य) होती है। लेकिन यह जनन क्षमता केवल एक ही पीढी तक बनी रह पाती है।

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