जीवन की उत्पत्ति एवं विकास और वर्गीकरण से परिचय
- पृथ्वी ग्रह 4 से 5 अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया । पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति आज से लगभग 3.5 अरब वर्ष पूर्व हुई। तब से जीवों की लगभग 1.5 करोड़ प्रजातियों का उद्भव हो चुका है, लेकिन अब तक केवल 20 लाख प्रजातियों की ही पहचान की जा सकी है। इस पाठ में हम जानेंगे कि पृथ्वी पर सर्वप्रथम जीवन का प्रारंभ कैसे हुआ और प्राकृतिक चयन द्वारा कैसे इतने विभिन्न प्रकार के जीव विकसित हुए जिसे जाने-पहचाने शब्द जैवविविधता (बायोडाइवर्सिटी) के नाम से जाना जाता है।
- ऐसी व्यापक विविधता वाले जीवों का सुविधापूर्वक अध्ययन हम केवल तभी कर सकते हैं, जब हम उनकी समानताओं और असमानताओं के आधार पर उन्हें विभिन्न समूहों में बाँट लें, उनका नाम प्रदान कर लें तथा उनके बीच विकासीय संबंध स्थापित कर लें। इस पाठ में हम जीवों के वर्गीकरण के महत्व और उसकी विधि का भी अध्ययन करेंगे तथा सजीव संसार में विषाणुओं और विषाणुभों की स्थिति के संबंध को समझ सकेंगे।
जीवन का उद्भव
पृथ्वी की
उत्पत्ति लगभग 5 अरब वर्ष पूर्व हुई । तब पृथ्वी अत्यधिक गर्म थी। इतने उच्च ताप
पर किसी भी रूप में जीवन का अस्तित्व संभव नहीं था। इस प्रकार, जीवन के संबंध
में दो प्रश्न उभरते हैं-
1. पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई ?
2. आदि जीव नए-नए
रूपों में किस प्रकार विकसित हुए और इस विकास के परिणामस्वरूप पृथ्वी पर विभिन्न
प्रकार के जीवों का प्रादुर्भाव कैसे हुआ ?
जीवन के उद्भव का अर्थ है-अजैव पदार्थों से सरलतम प्रारंभिक जीवन का प्रकट होना। विकास का अर्थ है सरल जीवों से जटिल जीवों का क्रमिक रूप से प्रादुर्भाव ।
1 जीवन के उद्भव का रसायनसंश्लेषी सिद्धांत
जीवन के उद्भव की
व्याख्या करने के लिए अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए। जिसे सर्वाधिक व्यापक रूप
से स्वीकार्य किया जाता है वह है ए.आई. ओपेरिन द्वारा प्रस्तावित रसायनसंश्लेषी
सिद्धान्त । अन्य सिद्धान्त जैसे स्वत:जनन का सिद्धान्त आज केवल ऐतिहासिक महत्व का
सिद्धान्त है।
पृथ्वी पर जीवन का उद्भव सर्वप्रथम रसायनसंश्लेषी सिद्धान्त रासायनिक पदार्थों के एक - क्रमबद्ध संयोजनों से सूदूर भूतकाल में हुई और यह सब कुछ जल में हुआ।
- पृथ्वी की उत्पत्ति लगभग 5 अरब वर्ष पूर्व हुई ।
- आरंभ में पृथ्वी तत्प गैसों और विभिन्न रसायनों के वाष्पों की बनी हुई थी।
- क्रमशः पृथ्वी ठंडी होती गई और इसने एक ठोस पर्पटी ( crust) का रूप ले लिया ।
- आरंभिक वातावरण में अमोनिया (NH3), जल वाष्प (H2O), हाइड्रोजन (H2), मेथैन (CH4) विद्यमान थीं। उस समय मुक्त ऑक्सीजन नहीं थी । इस प्रकार का वातावरण (जिसमें मेथेन, अमोनिया और हाइड्रोजन पाई जाती हैं) अभी भी बृहस्पति व शनि ग्रहों में पाया जाता है .
- पृथ्वी की गर्म सतह पर जोरों की वर्षा हुई और बहुत लंबे समय के पश्चात् जलाशय बन गए जिनमें अभी भी गर्म जल भरा हुआ था।
- वातावरण की मेथैन व अमोनिया समुद्र के जल में घुल गई।
- इस जल में रासायनिक अभिक्रियाएँ होने के परिणामस्वरूप ऐमीनों अम्ल, नाइट्रोजनी क्षारक, शर्कराएँ व वसा अम्लों का निर्माण हुआ, जिनकी पुनः अभिक्रियाओं व संयोजनों के परिणामस्वरूप जीवन संबंधित नई प्रोटीनें, नयूक्लीक अम्लों का निर्माण हुआ।
2 जीवन के उद्भव की संभावित अवस्थाएँ
प्रथम अवस्था
ऊर्जा के स्रोत -
पराबैंगनी किरणों या विद्युत् विसर्जन (तड़ित ) या ऊष्मा या इन सभी के मिलने पर
अभिक्रियाएँ हुईं जिनसे जटिल कार्बनिक यौगिकों (जिनमें ऐमीनो अम्ल भी शामिल हैं)
जैसे कि अमोनिया (NH3), (CH4), जल (H2O) व हाइड्रोजन (H2) के एक मिश्रण
का निर्माण हुआ । (ऐमीनो अम्ल प्रोटीनों की संरचनात्मक इकाइयाँ हैं जो जीवद्रव्य
के मुख्य अवयव हैं )
स्टैनले मिलर व हेरॉल्ड सी. यूरे ने सन् 1953 में वायुरोधी उपकरण की सहायता से एक प्रयोग किया जिसमें चार गैसों (NH4 CH4 H2 H2O) पर एक सप्ताह तक विद्युत् विसर्जन को परिसंचारित किया गया। द्रव का विश्लेषण करने पर उन्हें इसमें अनेक प्रकार के कार्बनिक पदार्थ मिले जैसे ऐमीनो अम्ल, यूरिया, एसीटिक अम्ल, लैक्टिक अम्ल, आदि
द्वितीय अवस्था
सरल कार्बनिक
अणुओं के संयोजित होने से बड़े अणुओं जैसे विभिन्न पेप्टाइड जिनसे आगे चलकर
प्रोटीनें बनीं, शर्कराओं, स्टार्च व वसा-अणुओं का निर्माण हुआ।
तृतीय अवस्था
- विभिन्न प्रकार के अणुओं के बड़ी संख्या में पारस्परिक संयोजन से बहु आण्विक सम्मिश्र समष्टि विकसित हुई। कुछ सामान्य वसा - अणुओं ने स्वयं को इस आण्विक सम्मिश्र के चारों तरफ एक प्रकार की झिल्ली के रूप में व्यवस्थित किया। प्रयोगशाला में किए गए प्रयोगों में यह देखा गया कि एक विशेष आकार प्राप्त कर लेने के पश्चात् ये सम्मिश्र अपने चारों ओर विद्यमान विलयन से "सहपुंजित (coacervates ) के रूप में करते हैं। पृथक् हो जाते हैं। ये सूक्ष्मआकारी द्रव में सुस्पष्ट रूप से सीमा के अंदर गति सहपुंजित प्रकार की समष्टि संभवत: प्रथम जीवित कोशिकाओं की पूर्वगामी थी।
- अब इन सहपुंजों के अन्दर एक प्रकार की उपापचयी क्रियाएँ हो सकीं जिनके फलस्वरूप कुछ पदार्थों का तो संश्लेषण हुआ और कुछ पदार्थों का विघटन हुआ । विघटनकारी अभिक्रियाओं से ऊर्जा प्राप्त हो सकी होगी।
- बहुत आरंभ में निर्मित कुछ प्रोटीनों में एंजाइमों की भाँति व्यवहार करके अभिक्रियाओं की दर को प्रभावित किया होगा। यह भी माना जाता है कि आर. एन. ए. (RNA) अणुओं ने रासायनिक सम्मिश्र के "प्रारंभिक तरल" में एंजाइम सक्रियता अवश्य ही दर्शायी होगी। इन अणुओं को राइबोजाइम (Ribozymes) नाम दिया गया।
चतुर्थ अवस्था
यादृच्छिक संयोजन
(ramdom combination) द्वारा किसी प्रकार की न्यूक्लिओप्रोटीनें या
न्यूक्लीक अम्ल विकसित हुए होंगें। जिनके परिणामस्वरूप सहपुंज सदृश पिंडों में और
गुणों का समावेश हुआ, ये निम्नवत् हैं :
1. न्यूक्लीक अम्लों से अभिक्रियाएँ, और
2. न्यूक्लीक अम्लों के द्विगुणन से जनन की क्षमता
इस प्रकार, कोशिकाओं का निर्माण हुआ जिन्हें सरलतम आद्य जीवन कहा जा सकता है।
प्रारंभिक बूंद सदृश समस्त जीव विषमपोषी, अपना भोजन बना पाने में असमर्थ थे लेकिन पर्यावरण से अपने पोषण प्राप्त करते थे।
- प्रारंभिक विषमपोषियों की जीन संरचना में हुए अनगिनत परिवर्तनों में एक परिवर्तन के कारण पर्णहरित (क्लोरोफिल) अणुओं का निर्माण हुआ । (पर्णहरित पत्तियों को हरा रंग प्रदान करने वाला पदार्थ है)
- जीवन की क्लोरोफिल धारक इकाइयों में प्रथम बार सौर ऊर्जा को भोजन निर्माण में और प्रथम बार ऑक्सीजन को वातावरण में निर्मुक्त करने का कार्य किया ।
पृथ्वी के आदि वातावरण में मुक्त ऑक्सीजन नहीं थी ( इस समय तक केवल 'अवायवीय' प्रकार के जीव ही रहे होंगे, क्लोरोफिल धारक जीवों ने बाद में मुक्त ऑक्सीजन निर्मुक्त की जिससे अनेक प्रकार की जीवन संभावनाएँ विकसित हुई।
इस प्रकार सरलतम प्रकार का जीवन चार चरणों में विकसित हुआ । उसके बाद जैविक विकास से व्यापक प्रकार के जीव अस्तित्व में आए।