अर्द्धसूत्री विभाजन Meiosis Division in Hindi
- फार्मर तथा मूरे (Farmer and Moore; 1905) ने कोशिकाओं में अर्द्धसूत्री विभाजन को 'मियोसिस' (meiosis) नाम दिया।
- अर्द्धसूत्री विभाजन (meiosis) में कोशिका का विभाजन दो बार होता है, पहले विभाजन में गुणसूत्रों की संख्या आधी होती है और दूसरा विभाजन समसूत्री विभाजन की तरह ही होता है। ये दोनों विभाजन एक पूर्ण अर्द्धसूत्रण कोशिका विभाजन (meiotic cell division) के दो चरण माने जाते हैं इस प्रकार एक मातृ कोशा से चार पुत्री कोशिकाएँ बन जाती है।
- अर्द्धसूत्री विभाजन प्रायः जनन कोशिकाओं में युग्मकों के निर्माण के समय होता है। पौधों में यह परागकण व भ्रूणकोष के निर्माण के समय तथा युग्मनज में बीजाणु के निर्माण के समय होता है। विभाजित होने वाली कोशिकाओं के गुणसूत्रों की संख्या द्विगुणित (2) होती है। अर्द्धसूत्री विभाजन के फलस्वरूप सन्तति कोशाओं में गुणसूत्रों की संख्या मातृ कोशिकाओं से आधी अर्थात् अगुणित (haploid) रह जाती है युग्मकों के संयोजन से युग्मनज बनता है। जिससे गुणसूत्रों की संख्या फिर द्विगुणित हो जाती है। अर्द्धसूत्री विभाजन का अध्ययन पुष्प कलिकाओं के परागकोषों (anthers) में सुगमता से किया जा सकता है।
प्रथम अर्द्धसूत्रण विभाजन First Meiotic Division
इस विभाजन में निम्न अवस्थाएँ एक घटना क्रम बनाती हैं
प्रथम पूर्वावस्था Prophase -I
यह अर्द्धसूत्री विभाजन की सबसे बड़ी अवस्था है। पूरे विभाजन का 90% समय इस अवस्था में लगता है। इस अवस्था में होने वाली विभिन्न घटनाएँ निम्नलिखित हैं-
लैप्टोटीन Leptotene
- इस उप-अवस्था में क्रोमैटिन या केन्द्रक जाल (nuclear reticulum) कुण्डलित होकर लम्बे परन्तु स्पष्ट धागों (गुणसूत्रों) के रूप में दिखाई देने लगती हैं। यद्यपि प्रत्येक गुणसूत्र स्पष्ट दिखाई देता है, परन्तु उसके क्रोमैटिड अलग-अलग नहीं दिखाई पड़ते। एक ही प्रकार के गुण रखने वाले गुणसूत्रों के जोड़ें गुणसूत्र (homologous chromosomes) कहलाते हैं।
जाइगोटीन Zygotene
इस उप-अवस्था में गुणसूत्र अधिक मोटे व छोटे होते जाते हैं। समजात गुणसूत्र एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं तथा एक-दूसरे के बिल्कुल समीप आ जाते हैं तथा लम्बाई में बिल्कुल एक सिरे से दूसरे सिरे तक मिलन कर लेते हैं। समजात गुणसूत्रों के इस प्रकार जोड़े बनाने की क्रिया को सूत्रयुग्मन या सिनैप्सिस (synapsis) कहते हैं तथा युग्मी जोड़ों को युगली (bivalents) कहते हैं। इसके बाद गुणसूत्र कुछ मोटे व छोटे हो जाते हैं।
स्थूलपट्ट या पैकीटीन Pachytene
- यह उप-अवस्था प्रथम पूर्वावस्था की सबसे लम्बी अवस्था है और सूत्रयुग्मन के पूर्ण होने के उपरान्त यह अवस्था प्रारम्भ होती है। इस अवस्था में जोड़ों के मध्य पुनर्संयोजन गाँठ (recombination nodules) का बनना सबसे प्रमुख घटना है। यह क्रिया पारगमन क्रिया या जीन विनिमय (crossing over) की शुरुआत दर्शाती है। इस अवस्था में युगली, चतुष्ठक (tetrad) के रूप में दिखाई देता है।
- समजात गुणसूत्र के अबन्धु क्रोमैटिड के भागों के मध्य विनिमय को पारगमन या जीन विनिमय कहते हैं। पारगमन क्रिया सामान्यतया स्थूलपट्ट या पैकीटीन के अन्तिम चरण में प्रारम्भ होता है और द्विपट्ट या डिप्लोटीन उप-अवस्था प्रारम्भ होने से पूर्व या डिप्लोटीन की प्रारम्भिक अवस्था में खत्म हो जाती है। पारगमन क्रिया रिकॉम्बिनेज एन्जाइम की सहायता से सम्पन्न हो जाती है।
डिप्लोटीन Diplotene
- इस उप-अवस्था का प्रारम्भ सिनेप्टोनिमल कॉम्पलेक्स (synaptonemal complex) के खत्म होने तथा किऐज्मा (Chiasma) के बनने से समझा जाता है किऐज्मा का बनना, पारगमन क्रिया का पूर्ण होना दर्शाता है और साथ ही समजात गुणसूत्रों के अलग होने (disjunction) की शुरुआत भी इस उप-अवस्था का प्रमुख लक्षण है.
- इसी अवस्था ने किऐज्मा का अन्तस्थिकरण (terminalisation) भी प्रारम्भ हो जाता है। समजात गुणसूत्र इस समय प्रतिकर्षण के कारण अलग होते हैं सिवाय उन हिस्सों के जहाँ पारगमन क्रिया सम्पन्न होती है इस प्रकार X आकार की संरचना बनती है इसे किऐज्मा कहते हैं। जिन समजात गुणसूत्रों में पारगमन क्रिया होती है वहाँ पर इनके अलग होने के लिए किऐज्मा का बनना आवश्यक है। समान भागों में लगातार प्रतिकर्षण के कारण समजात गुणसूत्रों में किऐज्मा अपना स्थान परिवर्तन करके अन्तस्थ (terminal) भाग में आ जाता है।
पारगतिक्रम या डायकाइनेसिस Diakinesis
- इस उप-अवस्था किऐज्मेटा (Chiasmata) का उपान्तीभवन प्रमुख घटना है। दूसरे शब्दों में किऐज्मेटा गुणसूत्रों के अन्तिम छोर की ओर चला जाता है गुणसूत्र ज्यादा कुण्डलित हो जाते हैं और समजात गुणसूत्र अन्तस्थ किएज्मा पर एक-दूसरे के सम्पर्क में रहता है। इसमे केन्द्रिका व केन्द्रक आवरण विलुप्त हो जाते हैं तथा तुर्क का निर्माण आरम्भ हो जाता है।
प्रथम मध्यावस्था Metaphase - 1
इस अवस्था में केन्द्रिका तथा केन्द्रक आवरण पूरी तरह लुप्त हो जाते हैं। तर्क पूरी तरह बनकर तैयार हो जाता है। तकुं के द्वारा मध्य रेखा (equator) पर गुणसूत्र इस व्यवस्थित हो जाते हैं कि इनके गुणसूत्र बिन्दु ध्रुव की ओर तथा भुजाएँ मध्य रेखा की ओर होती है। प्रत्येक युगली में से एक गुणसूत्र का गुणसूत्र बिन्दु एक ध्रुव की ओर व दूसरे गुणसूत्र का गुणसूत्र बिन्दु दूसरे ध्रुव की ओर होता है।
प्रथम पश्चावस्था Anaphase - I
इस अवस्था में किसी भी युगली के गुणसूत्र बिन्दु विभाजित नहीं होते और तर्क तन्तु अब गुणसूत्र को विपरीत ध्रुवों की ओर खींचते हैं। परिणामस्वरूप प्रत्येक युगली में से एक गुणसूत्र एक ध्रुव की ओर खिंच जाता है व दूसरा गुणसूत्र दूसरे ध्रुव की ओर। इस प्रकार जनक कोशिका के कुल गुणसूत्रों में से आधे गुणसूत्र एक ध्रुव की ओर व आधे गुणसूत्र दूसरे ध्रुव की ओर चले जाते हैं।
प्रथम अन्त्यावस्था Telophase - I
इस अवस्था में प्रत्येक ध्रुव पर पहुँचे गुणसूत्रों के समूह के चारों ओर केन्द्रक आवरण का पुनः निर्माण हो जाता है। इसके पश्चात् कोशिकाद्रव्य, कोशिका खाँच द्वारा अथवा कोशिका प्लेट द्वारा विभाजित हो जाता है और दो सन्तति कोशिकाएँ बनती हैं जिनमें जनक कोशिकाओं की तुलना में आधे गुणसूत्र होते हैं अर्थात् एक जनक कोशिका में उपस्थित गुणसूत्रों के दो सेटों (2n) में से एक सेट (n) एक कोशिका में व दूसरा सेट (n) दूसरी कोशिका में पहुँच जाता है।
इस प्रकार बनी सन्तति कोशिकाएँ द्वितीय अर्द्धसूत्री विभाजन में भाग लेती है इसमें DNA अथवा क्रोमैटिन का द्विगुणन नहीं होता। इसके पश्चात् इन दोनों कोशिकाओं में पुनः विभाजन होता है। विभाजन के इस चरण को सम अर्द्धसूत्री विभाजन-II कहते हैं।
कोशिकाद्रव्य विभाजन
द्वितीय अर्द्धसूत्रण विभाजन
इस विभाजन में प्रथम अर्द्धसूत्रण विभाजन द्वारा बनी दोनों सन्तति कोशाएँ दूसरी बार विभाजित होती हैं। इसकी पूर्वावस्था, मध्यावस्था, पश्चावस्या तक अन्त्यावस्था समसूत्री विभाजन के समान होती है। इसमें अर्द्धगुणसूत्रों का पृथक्करण होता है।
द्वितीय पूर्वावस्था Prophase-II
इस अवस्था में केन्द्रिका तथा केन्द्रक आवरण विघटित हो जाते हैं। क्रोमैटिड सिकुड़कर छोटे व मोटे होने लगते हैं। प्रत्येक गुणसूत्र के दोनों क्रोमैटिड लम्बाई में अलग-अलग हो जाते हैं केवल गुणसूत्र बिन्दु पर जुड़े रहते हैं। क्रोमैटिड इस तरह व्यवस्थित हो जाते हैं कि उनके अक्ष प्रथम अर्द्धसूत्री विभाजन को तर्कु के लम्ब कोण पर स्थित हो।
द्वितीय मध्यावस्था Metaphase - II
इस अवस्था में गुणसूत्रों के गुणसूत्र बिन्दु दो भाग में विभक्त हो जाते हैं, परन्तु अलग नहीं होते। इस प्रकार प्रत्येक गुणसूत्र के दोनों क्रोमैटिड केवल सेन्ट्रोमीयर (centromere) द्वारा जुड़े रहते हैं। यहाँ तर्क उपकरण बन जाता हैं और गुणसूत्र तर्क की सहायता से मध्य रेखा पर स्थित हो जाते हैं।
द्वितीय पश्चावस्था Anaphase - II
इस अवस्था में गुणसूत्र विन्दु पूरी तरह विभाजित हो जाते हैं। फलस्वरूप प्रत्येक गुणसूत्र के दोनों क्रोमैटिड पूरी तरह से एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। पृथक् क्रोमैटिड जोकि जब स्वतन्त्र रूप से गुणसूत्र बन जाते हैं, तर्कु तन्तुओं द्वारा विपरित ध्रुवों की ओर खीचे जाते हैं। इस प्रकार गुणसूत्रों के दो अलग-अला समूह बन जाते हैं।
द्वितीय अन्त्यावस्था Telophase - II
इस अवस्था में गुणसूत्रों के दोनों समूहों के चारों ओर अलग-अलग केन्द्रक आवरण पुनः बन जाता है। केन्द्रिका भी पुनः बन जाती है। गुणसूत्र अकुण्डलित हो जाते हैं। इस प्रकार अर्द्धसूत्री विभाजन के फलस्वरूप एक जनक कोशिका से चार सन्तति कोशिकाएँ बनती हैं इनमें गुणसूत्रों की संख्या जनक कोशिका की तुलना में आधी होती है। विनिमय के कारण विभाजन के उपरान्त बनी चारों सन्तति कोशिकाओं के लक्षण एक-दूसरे से तथा जनक कोशिका से भिन्न होते हैं।
कोशिकाद्रव्य विभाजन Cytokinesis
अर्द्धसूत्री विभाजन में कोशिकाद्रव्य में तीन विभाजन होते हैं। प्रथम अर्द्धसूत्री विभाजन-1 में तथा दो अर्द्धसूत्री विभाजन-II में।
अर्द्धसूत्री विभाजन का महत्त्व Significance of Meiosis
- (1) इस प्रकार के विभाजन के फलस्वरूप बनी सन्तति कोशाओं में गुणसूत्रों की संख्या पैत्रक कोशिकाओं की द्विगुणित संख्या (2n) की आधी (n) रह जाती है। यह लैंगिक जनन के लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि लैंगिक जनन में एक मादा युग्मक (female gamete) और एक नर युग्मक (male gamete) के संयुग्मन से युग्मनज बनता है इसमें गुणसूत्रों की संख्या पुनः द्विगुणित (2n) हो जाती है। युग्मनज नए शरीर की रचना करता है। इस प्रकार प्रत्येक जाति के गुणसूत्रों की संख्या-पीढ़ी दर पीढ़ी समान एवं निश्चित बनी रहती है।
- (ii) प्रथम अर्द्धसूत्री विभाजन की पैकीटीन उप-अवस्था में पारगमन होता है, जिसके कारण चारों जनन कोशाओं में गुणसूत्रों की संख्या तो आधी रहती है, परन्तु गुणों में अन्तर आ जाता है और इसके फलस्वरूप नए संयोग बनते हैं जिनसे प्रजातियों में विभिन्नताएँ आती हैं। यही विकास का आधार है।