पुष्पक्रम पुष्प.अधोजायांगता परिजायांगता अधिजायांगता पुष्प के भाग
पुष्पक्रम
- फूल एक रुपांतरित प्ररोह है जहां पर प्ररोह का शीर्ष मेरिस्टेम पुष्पी मेरिस्टेम में परिवर्तित हो जाता है। पोरियाँ लंबाई में नहीं बढ़ती और अक्ष दबकर रह जाती है। गांठों पर क्रमानुसार पत्तियों की बजाय पुष्पी उपांग निकलते हैं। जब प्ररोह शीर्ष फूल में परिवर्तित होता है, तब वह सदैव अकेला होता है।
- पुष्पी अक्ष पर फूलों के लगने के क्रम को पुष्पक्रम कहते हैं।
- शीर्ष का फूल में परिवर्तित होना है अथवा सतत रूप से वृद्धि करने के आधार पर पुष्पक्रम को दो प्रकार असीमाक्षी तथा ससीमाक्षी में बांटा गया है।
असीमाक्षी प्रकार के पुष्पक्रम
- असीमाक्षी प्रकार के पुष्पक्रम के प्रमुख अक्ष में सतह वृद्धि होती रहती है और फूल पार्श्व में अग्राभिसारी क्रम में लगे रहते हैं .
ससीमाक्षी पुष्पक्रम
- ससीमाक्षी पुष्पक्रम में प्रमुख अक्ष के शीर्ष पर फूल लगता है, इसलिए इसमें सीमित वृद्धि होती है। फूल तलाभिसारी क्रम में लगे रहते हैं ।
5 पुष्प
- एंजियोस्पर्म में पुष्प (फूल) एक बहुत महत्वपूर्ण ध्यानकर्षी रचना है।
- पुष्प (फूल) एक रूपांतरित प्ररोह है जो लैंगिक जनन के लिए होता है। एक प्ररूपी फूल में विभिन्न प्रकार के विन्यास होते हैं जो क्रमानुसार फूले हुए पुष्पांत जिसे पुष्पासन कहते हैं, पर लगे रहते हैं। ये हैं-केलिक्स, कोरोला, पुमंग तथा जायांग।
- केलिक्स तथा कोरोला सहायक अंग है जबकि पुमंग तथा जायांग लैंगिक अंग हैं।
- कुछ फूलों जैसे प्याज में केल्किस तथा कोरोला में कोई अंतर नहीं होता। इन्हें परिदलपुंज (पेरिऐंथ) कहते हैं।
- जब फूल में पुंकेसर तथा जायांग (अंडप) दोनों ही होते हैं तब उसे द्विलिंगी अथवा उभयलिंगी कहते हैं। यदि किसी फूल में केवल एक पुंकेसर अथवा अंडप हो तो उसे एकलिंगी कहते हैं।
पुष्प की सममिति
सममिति में फूल त्रिज्यसममिति (नियमित) अथवा एकव्याससममित (द्विपार्श्विक) हो सकते हैं।
त्रिज्यसममिति (नियमित)
- जब किसी फूल को दो बराबर भागों में विभक्त किया जा सके तब उसे त्रिज्यसममिति कहते हैं। इसके उदाहरण हैं सरसों, धतूरा, मिर्च।
एकव्याससममित
- लेकिन जब फूल को केवल एक विशेष ऊर्ध्वाधर समतल से दो समान भागों में विभक्त किया जाए तो उसे एकव्याससममित कहते हैं। इसके उदाहरण हैं- मटर, गुलमोहर, सेम, केसिया आदि।
सममिति अथवा अनियमित
- जब कोई फूल बीच से किसी भी ऊर्ध्वाधर समतल से दो समान भागों में विभक्त न हो सके तो उसे असममिति अथवा अनियमित कहते हैं। जैसे कि केना।
उपांगों की संख्या के आधार पर पुष्प
- एक पुष्प त्रितयी, चतुष्टयी, पंचतयी हो सकता है यदि उसमें उनके उपांगों की संख्या 3,4 अथवा 5 के गुणक में हो सकती है।
सहपत्री सहपत्रहीन पुष्प
- जिस पुष्प में सहपत्र होते हैं (पुष्पवृंत के आधार पर छोटी-छोटी पत्तियाँ होती हैं) उन्हें सहपत्री कहते हैं और जिसमें सहपत्र नहीं होते, उन्हें सहपत्रहीन कहते हैं।
पुष्पवृंत पर केल्किस, केरोला, पुमंग तथा अंडाशय की सापेक्ष स्थिति
पुष्पवृंत पर केल्किस, केरोला, पुमंग तथा अंडाशय की सापेक्ष स्थिति के आधार पर पुष्प को अधोजायांगता (हाइपोगाइनस), परिजायांगता (पेरीगाइनस), तथा अधिजायांता (ऐपीगाइनस) ।
अधोजायांगता
- अधोजायांगता में जायांग सर्वोच्च स्थान पर स्थित होता है और अन्य अंग नीचे होते हैं। ऐसे फूलों में अंडाशय ऊर्ध्ववर्ती होते हैं। इसके सामान्य उदाहरण सरसों, गुड़हल तथा बैंगन हैं।
परिजायांगता
- परिजायांगता में अंडाशय मध्य में होता है और अन्य भाग पुष्पासन के किनारे पर स्थित होते हैं तथा ये लगभग समान ऊँचाई तक होते हैं। इसमें अंडाशय आधा अधोवर्ती होता है। इसके सामान्य उदाहरण हैं- पल्म, गुलाब, आडू हैं।
अधिजायांगता
- अधिजायांगता में पुष्पासन के किनारे ऊपर की ओर वृद्धि करते हैं तथा वे अंडाशय को पूरी तरह घेर लेते हैं और इससे संलग्न हो जाते हैं। फूल के अन्य भाग अंडाशय के ऊपर उगते हैं। इसलिए अंडाशय अधोवर्ती होता है। इसके उदाहरण हैं सूरजमुखी के अरपुष्पक, अमरूद तथा घीया।
1 पुष्प के भाग
प्रत्येक पुष्प में चार चक्र होते हैं जैसे केल्किस, कोरोला, पुमंग तथा जायांग.
1.1 केल्किस
- केल्किस पुष्प का सबसे बाहरी चक्र है और इसकी इकाई को बाह्य दल कहते हैं। प्रायः बाह्य दल हरी पत्तियों की तरह होते हैं और कली की अवस्था में फूल की रक्षा करते हैं। केल्किस संयुक्त बाह्य दली (जुड़े हुए बाह्य दल) अथवा पृथक बाह्य दली (मुक्त बाह्य दल) होते हैं।
1.2 कोरोला
- कोरोला, दल (पंखुड़ी) का बना होता है। दल प्रायः चमकीले रंगदार होते हैं। ये परागण के लिए कीटों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
- केल्किस की तरह कोरोला भी संयुक्त दली अथवा पृथक्दलीय हो सकता है। पौधों में कोरोला की आकृति तथा रंग भिन्न-भिन्न होता हैं। जहाँ तक आकृति का संबंध है, वह नलिकाकार, घंटाकार, कीप के आकार का तथा चक्राकार हो सकती है।
पुष्पदल विन्यास
पुष्पदल विन्यास
- पुष्पकली में उसी चक्र की अन्य इकाइयों के सापेक्ष बाह्य दल अथवा दल के लगे रहने के क्रम को पुष्प दल विन्यास कहते हैं।
- पुष्प दल विन्यास के प्रमुख प्रकार कोर स्पर्शी, व्यावर्तित, कोरछादी, वैकजीलेरी होते हैं ।
कोरस्पर्शी
- जब चक्र के बाह्यदल अथवा दल एक दूसरे के किनारों को केवल स्पर्श करते हों उसे कोरस्पर्शी कहते हैं; जैसे केलोट्रॉपिस ।
व्यावर्तित
- यदि किसी दल अथवा बाह्य दल का किनारा अगले दल पर तथा दूसरे तीसरे आदि पर अतिव्याप्त हो तो उसे व्यावर्तित कहते हैं। इसके उदाहरणः गुडहल, भिंडी तथा कपास हैं।
कोरछादी
- यदि बाह्य दल अथवा दल दूसरे पर अतिव्याप्त हो तो उसकी कोई विशेष दिशा नहीं होती। इस प्रकार की स्थिति को कोरछादी कहते हैं। इसके उदाहरण केसिया, गुलमोहर हैं।
वैक्जीलरी अथवा पैपिलिओनेसियस
- मटर, सेम में पाँच दल होते हैं। इनमें से सबसे बड़ा (मानक) दो पार्वी को (पंख) और ये दो सबसे छोटे अग्र दलों (कूटक) को अतिव्यापित करते हैं। इस प्रकार के पुष्पदल विन्यास को वैक्जीलरी अथवा पैपिलिओनेसियस कहते हैं।
1.3 पुमंग
- पुमंग पुंकेसरों से मिलकर बनता है। प्रत्येक पुंकेसर जो फूल के नर जनन अंग हैं, में एक तंतु तथा एक परागकोश होता है। प्रत्येक परागकोश प्रायः द्विपालक होता है और प्रत्येक पालि में दो कोष्ठक, परागकोष होते हैं। पराग कोष में परागकण होते हैं।
- बंध्य पुंकेसर जनन करने में असमर्थ होते हैं और वह स्टेमिनाएड कहलाते हैं।
- पुंकेसर फूल के अन्य भागों जैसे दल अथवा आपस में ही जुड़े हो सकते हैं। जब पुंकेसर दल से जुड़े होते हैं, तो उसे दललग्न (ऐपीपेटलस) कहते हैं जैसे बैंगन में। यदि ये परिदल पुंज से जुड़े हों तो उसे परिदल लग्न (ऐपीफिलस) कहते हैं जैसे लिली में। फूल में पुंकेसर मुक्त (बहु पुंकेसरी) अथवा जुड़े हो सकते हैं। पुंकेसर एक गुच्छे अथवा बंडल (एकसंघी) जैसे गुड़हल में है; अथवा दो बंडल (द्विसंघी) जैसे मटर में अथवा दो से अधिक बंडल (बहुसंघी) जैसे सिट्रस में हो सकते हैं। उसी फूल के तंतु की लंबाई में भिन्नता हो सकती है जैसे सेल्विया तथा सरसों में।
1.4 जायांग
- जायांग फूल के मादा जनन अंग होते हैं। ये एक अथवा अधिक अंडप से मिलकर बनते हैं।
- अंडप के तीन भाग होते हैं- वर्त्तिका, वर्तिकाग्र तथा अंडाशय।
- अंडाशय का आधारी भाग फूला हुआ होता है जिस पर एक लम्बी नली होती है जिसे वर्तिका कहते हैं। वर्त्तिका अंडाशय को वर्त्तिकाग्र से जोड़ती है।
- वर्त्तिकाग्र प्रायः वर्त्तिका की चोटी पर होती है और परागकण को ग्रहण करती है।
- प्रत्येक अंडाशय में एक अथवा अधिक बीजांड होते हैं जो चपटे, गद्देदार बीजांडासन से जुड़े रहते हैं।
- जब एक से अधिक अंडप होते हैं तब वे पृथक (मुक्त) हो सकते हैं, (जैसे कि गुलाब और कमल में) इन्हें वियुक्तांडपी (एपोकार्पस) कहते हैं।
- जब अंडप जुड़े होते हैं, जैसे मटर तथा टमाटर, तब उन्हें युक्तांडपी (सिनकार्पस) कहते हैं।
- निषेचन के बाद बीजांड से बीज तथा अंडाशय से फल बन जाते हैं।
बीजांडन्यास :
- अंडाशय में बीजांड के लगे रहने का क्रम को बीजांडन्यास (प्लैसेनटेशन) कहते हैं।
- बीजांडन्यास सीमांत, स्तंभीय, भित्तीय, आधारी, केंद्रीय तथा मुक्त स्तंभीय प्रकार का होता है ।
सीमांत
- सीमांत में बीजांडासन अंडाशय के अधर सीवन के साथ-साथ कटक बनाता है और बीजांड कटक पर स्थित रहते हैं जो दो कतारें बनाती हैं जैसे कि मटर में।
स्तंभीय
- जब बीजांडासन अक्षीय होता है और बीजांड बहुकोष्ठकी अंडाशय पर लगे होते हैं तब ऐसे बीजांडन्यास को स्तंभीय कहते हैं। इसका उदाहरण हैं गुड़हल, टमाटर तथा नींबू ।
भित्तीय बीजांडन्यास
- भित्तीय बीजांडन्यास में बीजांड अंडाशय की भीतरी भित्ति पर अथवा परिधीय भाग में लगे रहते हैं। अंडाशय एक कोष्ठक होता है लेकिन आभासी पट बनने के कारण दो कोष्ठक में विभक्त हो जाता है। इसके उदाहरण हैं क्रुसीफर (सरसों) तथा आर्जेमोन हैं।
मुक्तस्तंभीय
- जब बीजांड केंद्रीय कक्ष में होते हैं और यह पुटीय नहीं होते जैसे कि डायऐंथस तथा प्रिमरोज, तब इस प्रकार के बीजांडन्यास को मुक्तस्तंभीय कहते हैं।
आधारी बीजांडन्यास
- आधारी बीजांडन्यास में बीजांडासन अंडाशय के आधार पर होता है और इसमें केवल एक बीजांड होता है। इसके उदाहरण सूरजमुखी, गेंदा है।