प्राणियों में संरचनात्मक संगठन | मेंढक आंतरिक आकारिकी |Frog Internal Morphology NCERT

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 प्राणियों में में संरचन संरचनात्मक संगठन

प्राणियों में संरचनात्मक संगठन | मेंढक आंतरिक आकारिकी |Frog Internal Morphology NCERT


 

 प्राणियों में संरचनात्मक संगठन

  • एक कोशिकीय प्राणियों में जीवन की समस्त जैविक क्रियाएं जैसे पाचन, श्वसन तथा जनन, एक ही कोशिका द्वारा संपन्न होती हैं। बहुकोशकीय प्राणियों के जटिल शरीर में उपर्युक्त आधारभूत क्रियाएं भिन्न-भिन्न कोशिका समूहों द्वारा व्यवस्थित रूप से संपन्न की जाती हैं। 
  • सरल प्राणी हाइड्रा का शरीर विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं का बना हुआ है, जिनमें प्रत्येक कोशिका की संख्या हजारों में होती है। 
  • मानव का शरीर अरबों कोशिकाओं का बना हुआ है, जो विविध कार्य संपन्न करता है। 
  • बहुकोशिकीय प्राणियों में समान कोशिकाओं का समूह, अंतरकोशिकीय पदार्थों सहित एक विशेष कार्य करता है, कोशिकाओं का ऐसा संगठन ऊतक (tissue) कहलाता है। 
  • सभी जटिल प्राणियों का शरीर केवल चार प्रकार के आधारभूत ऊतकों का बना हुआ है। ये सब ऊतक एक विशेष अनुपात एवं प्रतिरूप से संगठित होकर अंगों का निर्माण करते हैं, जैसे- आमाशय, फुप्फुस (lungs), हृदय और वृक्क (kidney)। 
  • जब दो या दो से अधिक अंग अपनी भौतिक एवं रासायनिक पारस्परिक क्रिया से एक निश्चित कार्य को संपन्न कर अंग-तंत्र का निर्माण करते हैं जैसे-पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र इत्यादि। 
  • समस्त शरीर की जैविक क्रियाएं, कोशिका, ऊतक, अंग तथा अंग तंत्र में श्रम विभाजन के द्वारा संपन्न होती हैं और पूरे शरीर को जीवित रखने के लिए योगदान देती हैं।

 

अंग और अंगतंत्र 

  • बहुकोशीय प्राणियों में , ऊतक संगठित होकर अंग और अंगतंत्र की रचना करते हैं। इस तरह का संगठन लाखों कोशिकाओं द्वारा निर्मित जीव की सभी क्रियाओं को अधिक दक्षतापूर्वक एवं समन्वित रूप से चलाने के लिए आवश्यक होता है। 
  • शरीर के प्रत्येक अंग एक या एक से अधिक प्रकार के ऊतकों से बना होता हैं। उदाहरणार्थ, हृदय में चारों तरह के ऊतक होते हैं, उपकला, संयोजी, पेशीय तथा तंत्रकीय ऊतक। 
  • अंग और अंगतंत्र की जटिलता एक निश्चित इंद्रियगोचर प्रवृत्ति को प्रदर्शित करती है। यह इंद्रियगोचर प्रवृत्ति एक विकासीय प्रवृत्ति कहलाती है। 
  • इस अध्याय में, आपको मेंढक की शारीर (anatomy) और आकारिकी (mor- phology) के संगठन एवं क्रियाविधि के बारे में जानकारी प्राप्त होगी। 
  • आकारिकी आपको जीवों की बाह्य संरचना या बाह्य दिखने वाले आकार का अध्ययन कराती है। पौधों या सूक्ष्म जीवों के संदर्भ में, आकारिकी शब्द का वस्तुतः मतलब यही है। प्राणियों के संबंध में आकारिकी का मतलब शरीर के बाह्य अंगों की बनावट या शरीर के बाह्य भागों का अध्ययन है।
  • प्राणियों में शारीर का पारंपरिक मतलब आंतरिक अंगों की संरचना के अध्ययन से है। अब आप मेंढक के आकारिकी एवं शारीरकी का अध्ययन करेंगे। जो कशेरुकी का प्रतिनिधित्व करता है।

 

मेंढक संरचनात्मक संगठन  

  • मेंढक वह प्राणी है जो मीठे जल तथा धरती दोनों पर निवास करता है तथा कशेरुकी संघ के एंफीबिया वर्ग से संबंधित होता है।  भारत में पाई जाने वाली मेंढक की सामान्य जाति राना टिग्रीना है।  
  • मेंढक के शरीर का ताप स्थिर नहीं होता है। शरीर का ताप वातावरण के ताप के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। इस प्रकार के प्राणियों को असमतापी या अनियततापी कहते हैं। 
  • मेंढक के रंग को परिवर्तित होते हुए आपने अवश्य देखा होगा, जिस समय ये घास तथा नम जमीन पर होते हैं। क्या आप बता सकते हो, ऐसा क्यों होता है? उनमें अपने शत्रुओं से छिपने के लिए रंग परिवर्तन की क्षमता होती है, जिसे छद्मावरण कहा जाता है। इस रक्षात्मक रंग परिवर्तन क्रिया को अनुहरण (mimicry) कहते हैं। 
  • मेंढक शीत व ग्रीष्म ऋतु में नहीं दिखते। इस अंतराल में ये सर्दी तथा गर्मी से अपनी रक्षा करने के लिए गहरे गड्ढों में चले जाते हैं। इस प्रक्रिया को क्रमशः शीत निष्क्रियता (hibernation) व ग्रीष्म निष्क्रियता (aestivation) कहते हैं।

 

मेंढक बाह्य आकारिकी 

  • मेंढक की त्वचा श्लेषमा (म्युकस) से ढकी होने के कारण चिकनी तथा फिसलनी होती है। इसकी त्वचा सदैव आर्द्र रहती है। मेंढक की ऊपरी सतह धानी हरे रंग की होती है, जिसमें अनियमित धब्बे होते हैं, जबकि नीचे की सतह हल्की पीली होती है। मेंढक कभी पानी नहीं पीता; बल्कि त्वचा द्वारा इसका अवशोषण करता है। 
  • मेंढक का शरीर सिर व धड़ में विभाजित रहता है। पूंछ व गर्दन का अभाव होता है। 
  • मुख के ऊपर एक जोड़ी नासिका द्वार खुलते हैं। आँखें बाहर की ओर निकली व निमेषकपटल से ढकी होती हैं ताकि जल के अंदर आँखों का बचाव हो सके। आँखों के दोनों ओर (कान) टिम्पैनम या कर्ण पटह उपस्थित होते हैं, जो ध्वनि संकेतों को ग्रहण करने का कार्य करते हैं। 
  • अग्र व पश्चपाद चलने, फिरने, टहलने व गड्ढा बनाने का काम करते हैं। अग्र पाद में चार अंगुलियाँ होती हैं; जबकि पश्चपाद में पाँच होती हैं। तथा पश्चपाद लंबे व मांसल होते हैं। पश्च पाद की झिल्लीयुक्त अंगुलि जल में तैरने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 
  • मेंढक में लैंगिक द्विरूपता देखी जाती है। नर मेंढक में आवाज उत्पन्न करने वाले वाक् कोष (vocal sacs) के साथ-साथ अग्रपाद की पहली अंगुलि में मैथुनांग होते हैं। ये अंग मादा मेंढक में नहीं मिलते हैं।

 

मेंढक आंतरिक आकारिकी 

  • मेंढक की देह गुहा में पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र, तंत्रिका तंत्र, संचरण तंत्र, जनन तंत्र पूर्ण अच्छी तरह परिवर्धित संरचनाओं एवं कार्यों युक्त होते हैं। 

मेंढक का पाचन तंत्र

  • मेंढक का पाचन तंत्र आहार नाल तथा आहर ग्रंथि का बना होता है । मेंढक मांसाहारी है, अतः इसकी आहारनाल लंबाई में छोटी होती है। इसका मुख, मुखगुहिका में खुलता है जो ग्रसनी से होते हुए ग्रसिका तक जाती है। ग्रसिका एक छोटी नली है जो आमाशय में खुलती है। आमाशय आगे चलकर आंत्र, मलाशय और अंत में अवस्कर (cloaca) द्वारा बाहर खुलता है। इसका मुँह मुखगुहिका द्वारा ग्रसनी में खुला है जो ग्रसिका तक जाती है। 

  • यकृत पित्त रस स्रावित करता है जो पित्ताशय में एकत्रित रहता है। अग्नाश्य जो एक पाचक ग्रंथि है, जो अग्नाशयी रस स्रवित करता है जिसमें पाचक एंजाइम होते हैं। 
  • मेंढक अपनी द्विपालित जीभ से भोजन का शिकार पकड़ता है। इसके भोजन का पाचन आमाशय की दीवारों द्वारा स्रवित हाइड्रोक्लोरिक अम्ल तथा पाचक रसों द्वारा होता है। अर्धपाचित भोजन काइम कहलाता है जो आमाशय से ग्रहणी में जाता है। 
  • ग्रहणी पित्ताशय से पित्त और अग्नाशय से अग्नाशयी रस मूल पित्त वाहिनी द्वारा प्राप्त करती है। पित्तरस वसा तथा अग्नाशयी रस कार्बोहाइड्रेटों तथा प्रोटीन का पाचन करता है। 
  • पाचन की अंतिम प्रक्रिया आँत में होती है। पाचित भोजन आँत के अंदर अंकुर और सूक्ष्मांकुरों द्वारा अवशोषित होते हैं। अपाचित भोजन अवस्कर द्वार से बाहर निष्कासित कर दिया जाता है।

 मेंढक श्वसन

  • मेंढक जल व थल दोनों स्थानों पर दो विभिन्न विधियों द्वारा श्वसन कर सकते हैं। इसकी त्वचा एक जलीय श्वसनांग का कार्य करती है। इसे त्वचीय श्वसन कहते हैं। विसरण द्वारा पानी में घुली हुई ऑक्सीजन का विनिमय होता है। 
  • जल के बाहर त्वचा, मुख गुहा और फेफड़े वायवीय श्वसन अंगों का कार्य करते हैं। 
  • फेफड़ों के द्वारा श्वसन फुप्फसीय श्वसन कहलाता है। फेफेड़े एक लंबें अंडाकार गुलाबी रंग की थैलीनुमा संरचनाएं होती हैं, जो देहगुहा के वक्षीय भाग में पाई जाती हैं। वायु नासा छिद्रों से होकर मुख गुहा तथा फेफड़ों में पहुँचती है। 
  • ग्रीष्म निष्क्रियता व शीत निष्क्रियता के दौरान मेंढक त्वचा से श्वसन करते हैं।

 मेंढक का परिसंचरण तंत्र

  • मेंढक का परिसंचरण तंत्र, सुविकसित बंद प्रकार का होता है। इसमें लसीका परिसंचरण भी पाया जाता है। अर्थात् ऑक्सीजनित अथवा विऑक्सीजनित रक्त हृदय में मिश्रित हो जाते हैं। 
  • रुधिर परिसंचरण तंत्र हृदय, रक्त वाहिकाओं और रुधिर से मिलकर बनता है। 
  • लसीका तंत्र लसीका, लसीका नलिकाओं और लसीका ग्रंथियों का बना होता है। 
  • हृदय एक त्रिकोष्ठीय मांसल संरचना है, जो कि देह गुहा के ऊपरी भाग में स्थित है। यह पतली पारदर्शी झिल्ली, हृदय आवरण (पेरीकार्डियम) द्वारा ढका रहता है। एक त्रिकोष्ठीय संरचना, जिसे शिराकोटर (साइनस वेनोसस) कहते हैं, हृदय के दाहिने अलिंद से जुड़ा रहता है तथा महाशिराओं से रक्त प्राप्त करता है। 
  • हृदय की अधर सतह पर दाएं अलिंद के ऊपर एक थैलानुमा रचना धमनी शंकु होता है, जिसमें निलय (ventricle) खुलता है। 
  • हृदय से रक्त धमनियों द्वारा शरीर के सभी भागों में भेजा जाता है। इसे धमनी तंत्र कहते हैं। शिराएं शरीर के विभिन्न भागों से रक्त एकत्रित कर हृदय में पहुँचाती हैंयह शिरा-तंत्र कहलाता है।

 

 मेंढक में विशेष संयोजी शिराएं 

  • मेंढक में विशेष संयोजी शिराएं यकृत तथा आँतों के मध्य वृक्क तथा शरीर के निचले भागों के मध्य पाई जाती है। इन्हें क्रमशः यकृत निवाहिका तंत्र एवं वृक्कीय निवाहिका तंत्र कहते हैं। 
  • रक्त प्लेज्मा तथा रक्त-कणिकाओं से मिलकर बना है। रक्त कणिकाएं हैं- लाल रुधिर कणिकाएं (रक्ताणु) एवं श्वेत रुधिर कणिकाएं (श्वेताणु) एवं पट्टिकाणु (प्लेटलेट)। 
  • लाल रुधिर कणिकाओं में लाल रंग का श्वसन रंजक हीमोग्लोबिन पाया जाता है। इन कणिकाओं में केंद्रक पाया जाता है। 
  • लसीका रुधिर से भिन्न होता है; क्योंकि इसमें कुछ प्रोटीन व लाल रुधिर कणिकाएं अनुपस्थित होती हैं। 
  • परिसंचरण के दौरान रक्त पोषकों गैसों व जल को नियत स्थानों तक ले जाता है। रुधिर परिसंचरण मांसल हृदय की पंपन क्रिया द्वारा होता है।

मेंढक में पूर्ण विकसित उत्सर्जी तंत्र

  • नाइट्रोजनी अपशिष्ट को शरीर से बाहर निकालने के लिए मेंढक में पूर्ण विकसित उत्सर्जी तंत्र होता है।
  • उत्सर्जी अंग में मुख्यतः एक जोड़ी वृक्क, मूत्रवाहिनी, अवस्कर द्वार तथा मूत्राशय होते हैं। 
  • वृक्क गहरे लाल रंग के सेम के आकार के होते हैं और देहगुहा में थोड़ा सा पीछे की ओर केशेरुक दंड के दोनों ओर स्थित होते हैं। प्रत्येक वृक्क कई सरंचनात्मक व क्रियात्मक इकाइयों, मूत्रजन नलिकाओं या वृक्काओं का बना होता है। 
  • नर मेंढक में मूत्र नलिका वृक्क से मूत्र जनन नलिका के रूप में बाहर आती है। मूत्रवाहिनी अवस्कर द्वार में खुलती है। 
  • मादा मेंढक में मूत्र वाहिनी एवं अंडवाहिनी अवस्कर द्वार में अलग-अलग खुलती हैं। 
  • एक पतली दीवार वाला मूत्राशय भी मलाशय के अधर भाग पर स्थित होता है, जो कि अवस्कर में खुलता है। 
  • मेंढक यूरिया का उत्सर्जन करता है इसलिए यूरिया-उत्सर्जी प्राणी कहलाता है। उत्सर्जी अपशिष्ट रक्त द्वारा वृक्क में पहुँचते हैं, जहाँ पर ये अलग कर दिए जाते हैं और उनका उत्सर्जन कर दिया जाता है। 


मेंढक अंतः स्रावी ग्रंथियाँ 

  • नियंत्रण व समन्वय तंत्र मेंढक में पूर्ण विकसित होता है। (endocrine system) व तंत्रिका तंत्र दोनों पाए जाते हैं। समन्वयन कुछ रसायनों द्वारा होता है जिन्हें हॉर्मोन कहते हैं। स्रावित होते हैं। 
  • मेंढक की मुख्य अंतःस्रावी ग्रंथियाँ हैं विभिन्न अंगों में आपसी ये अंतःस्रावी ग्रंथियों द्वारा पीयूष (पिट्यूटरी), अवटु (थॉइराइड), परावटु (पैराथाइराइड), थाइमस, पीनियल काय, अग्नाशयी द्वीपकाएं, अधि वृक्क (adrenal) और जनद (gonad)। 

मेंढक तंत्रिका तंत्र

  • तंत्रिका तंत्र (मस्तिष्क तथा मेरु रज्जु) केंद्रीय तंत्रिका तंत्र, परिधीय तंत्रिका तंत्र (कपालीय व मेरु तंत्र) और स्वायत्त तंत्रिका तंत्र (ओटोनोमिक नर्वस सिस्टम) अनुकंपी और परानुकंपी (सिंपेथेटिक व पैरासिंपेथिटक) तंत्र का बना होता है। 
  • मस्तिष्क से 10 जोड़ी कपाल तंत्रिकाएं निकलती है। 
  • मस्तिष्क, हड्डियों से निर्मित मस्तिष्क बॉक्स अथवा कपाल के अंदर बंद रहता है। यह अग्र मस्तिष्क, मध्य मस्तिष्क और पश्च मस्तिष्क में विभाजित होता है। 
  • अग्र मस्तिष्क में घ्राण पालियाँ, जुड़वाँ, युग्मित, प्रमस्तिष्क गोलार्ध और केवल एक अग्रमस्तिष्क पश्च (diencephalon) होते हैं। 
  • मध्य मस्तिष्क एक जोड़ा दृक पालियों का बना होता है। 
  • पश्च मस्तिष्क, अनुमस्तिष्क एवं मेडूला ऑब्लांगेटा का बना होता है। मेडूला ऑब्लांगेटा महारंध्र से निकलकर मेरुदंड में स्थित मेरुरज्जु से जुड़ा रहता है। 

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