परागण के अभिकर्मक या कारक |Agents of pollination

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परागण के अभिकर्मक या कारक 

परागण के अभिकर्मक या कारक |Agents of pollination


परागण 

  • पुष्पीय पादपों में नर एवं मादा युग्मक क्रमशः परागकण एवं भ्रूणकोश में पैदा होते हैं। चूँकि दोनों ही प्रकार के युग्मक अचल हैं अतः निषेचन संपन्न होने के लिए दोनों को ही एक साथ लाना होता है।इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए परागण एक प्रक्रम है। 
  • परागकणों (परागकोश से झड़ने के पश्चात्) का स्त्रीकेसर के वर्तिकाग्र तक स्थानांतरण या संचारण को परागण कहा जाता है। परागण की प्राप्ति के लिए पुष्पी पादपों ने एक आश्चर्य जनक अनुकूलन व्यूह विकसित किया है। ये परागण को प्राप्त करने के लिए बाह्य कारकों का उपयोग करते हैं।  

परागण के प्रकार - 

पराग के स्रोत को ध्यान में रखते हुएपरागण को तीन प्रकारों में बाँटा जा सकता है-

(क) स्वयुग्मन (ओटोगैमी) 

  • एक ही (उसी) पुष्प में परागकोश से वर्तिकाग्र तक परागकणों का स्थानांतर है । इस प्रकार का परागण उसी पुष्प के अन्दर होता है। 
  • एक सामान्य पुष्प मेंजहाँ परागकोश एवं वर्तिकाग्र खुलता एवं अनावृत होता हैवहाँ पूर्ण स्वयुग्मन अपेक्षाकृत दुर्लभ होता है। इस प्रकार के पुष्पों में स्वयुग्मन के लिए पराग एवं वर्तिकाग्र की विमुक्ति के लिए क्रमशः समकालिकता की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही परागकोश एवं वर्तिकाग्र को एक-दूसरे के पास अवस्थित होना चाहिएताकि स्व-परागण संपन्न हो सके। 
  • कुछ पादप जैसे कि वायोला (सामान्य पानसी)ओक्जेलीस तथा कोमेलीना (कनकौआ) दो प्रकार के पुष्प पैदा करते हैं- उन्मीलपरागणी पुष्पअन्य प्रजाति के पुष्पों के समान ही होते हैंजिसके परागकोश एवं वर्तिकाग्र अनावृत होते हैं तथा अनुन्मील्य परागणी पुष्प कभी भी अनावृत नहीं होते हैं, इस प्रकार के पुष्पों मेंपरागकोश एवं वर्तिकाग्र एक-दूसरे के बिल्कुल नजदीक स्थित होते हैं। जब पुष्प कलिका में परागकोश स्फुटित होते हैं तब परागकण वर्तिकाग्र के सम्पर्क में आकर परागण को प्रभावित करते हैं। अतः अनुन्मील्य परागणी पुष्प सदैव स्वयुग्मक होते हैं क्योंकि यहाँ पर वर्तिकाग्र पट क्रास या पर-परागण अवतरण के अवसर नहीं होते हैं 
  • उन्मील परागणी पुष्प सुनिश्चित रूप से (यहाँ तक कि परागण की अनुपस्थित में) बीज पैदा करते हैं। 

 

(ख) सजातपुष्पी परागण 

  • एक ही पादप के एक पुष्प के परागकणों का दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्रों तक का स्थानांतरण है। यद्यपि सजातपुष्पी परागण क्रियात्मक रूप से पर परागण है जिसमें एक कारक (एजेंट) सम्मिलित होता है। सजातपुष्पी परागण लगभग स्वयुग्मन जैसा ही हैक्योंकि इसमें परागकण उसी पादप से आते हैं। 

(ग) परनिषेचन - 

  • इसमें भिन्न पादपों के पराग कोश से भिन्न पादपों के वर्तिकाग्र तक परागकणों का स्थानांतरण होता है । मात्र यह ही केवल एक प्रकार का परागण हैजिसमें परागण के समय आनुवंशिकतः भिन्न प्रकार के परागकणों का आगमन होता है।

 

परागण के अभिकर्मक या कारक 

  • पौधे परागण के कारक या अभिकर्मक के रूप में दो अजीवीय (वायु एवं जल) तथा एक जीवीय (प्राणि) कारक (एजेंट) का उपयोग कर लक्ष्य प्राप्त करते हैं। अधि कतर पौधे परागण के लिए जीवीय कारकों का उपयोग करते हैं। बहुत कम पौधे अजीवीय कारकों का उपयोग करते हैं। वायु तथा जल दोनों ही कारकों में परागकण का वर्तिकाग्र के संपर्क में आना महज संयोगात्मक घटना है। इस प्रकार की अनिश्चितता तथा परागकणों के ह्रास से जुड़े 'तथ्योंकी क्षतिपूर्ति हेतु पौधेबीजांडों की तुलना मेंअसंख्य मात्रा में परागकण उत्पन्न करते हैं। 
  • अजीवीय परागण में वायु द्वारा परागण सर्वाधिक सामान्य परागण है। इसके साथ ही वायु परागण हेतु हल्के तथा चिपचिपाहट रहित परागकणों की जरूरत होती है ताकि वे हवा के झोकों के साथ संचारित हो सकें। वे अक्सर बेहतर अनावृत पुंकेसर से युक्त होते हैं (ताकि वे आसानी से हवा के बहाव में प्रसारित हो सकें) तथा वृहद एवं प्रायः पिच्छ वर्तिकाग्र युक्त होते हैं ताकि आसानी से वायु के उड़ते परागणों को आबद्ध किया जा सके.
  • वायु परागित पुष्पों में प्रायः प्रत्येक अंडाशय में एक अकेला बीजांड तथा एक पुष्प क्रम में असंख्य पुष्प गुच्छ होते हैं। इसका एक जाना-पहचाना उदाहरण भुट्टा (कोर्नकैव) हैं - आप जो फुंदने (टैसेल) देखते हैं वे कुछ और नहींबल्कि वर्तिकाग्र और वर्तिका है जो हवा में झूमते हैं ताकि परागकणों को आसानी से पकड़ सकें। घासों में वायु परागण सर्वथा सामान्य है। 
  • पुष्पीपादपों में पानी द्वारा परागण काफी दुर्लभ है। यह लगभग 30 वंशों तक सीमित हैवह भी अधिकतर एकबीजपत्री पौधों में। इसके विपरीतआप स्मरण करें कि निम्नपादप समूह जैसे – एलगीब्रायोफ़ाइट्स तथा टेरिडोफ़ाइट्स आदि के नर युग्मकों के परिवहन (संचार) का नियमित साधन जल ही है। 
  • यह विश्वास किया जाता है कि कुछ ब्रायोफ़ाइट एवं टैरिडोफ़ाइट्स का विस्तार केवल इसलिए सीमित हैक्योंकि नर युग्मकों के परिवहन एवं निषेचन हेतु जल की आवश्यकता होती है। जल परागित पादपों के कुछ उदाहरण वैलिसनैरिया तथा हाइड्रिला जो कि ताजे पानी में उगते हैं और अनेकों समुद्र जलीय घासें जैसे जोस्टेरा आदि हैं। सभी जलीय पौधे जल को परागण के लिए उपयोग में नहीं लाते हैं। 
  • अधिकांश जलीय पौधे जैसे कि वाटर हायसिंथ एवं वाटरलिली (मुकुदनी) पानी के सतह पर पैदा होते हैंऔर इनका परागण कीटों एवं वायु से होता हैजैसा कि अधिकतर थलीय पादपों में होता है। एक प्रकार के जलीय परागण में मादा पुष्प एक लंबे डंठल (वृत) द्वारा जल की सतह पर आ जाते हैं और नर पुष्प या परागकण पानी की सतह पर अवमुक्त होकर आ जाते हैं उदाहरणार्थ बैलीसनेरिया लंबे डंठल के साथ जल धाराओं में निष्क्रिय रूप से बहते रहते हैं । इनमें से कुछेक संयोगात्मक रूप से मादा पुष्प एवं वर्तिकाग्र तक पहुँच जाते हैं। 
  • एक अन्य समूह के जलीय परागण वाले पादपोंजैसे कि समुद्री घासों (सीग्रासेस) में मादा पुष्प जल के सतह के नीचे ही पानी में डूबा रहता है और परागकणों को जल के अंदर ही अवमुक्त किया जाता है। इस प्रकार की बहुत सारी प्रजातियों के परागकण लंबेफीते जैसे होते हैं तथा जल के भीतर निष्क्रिय रूप से बहते रहते हैंइनमें से कुछेक वर्तिकाग्र तक पहुँच जाते हैं और परागण पूरा होता है। जल परागित अधिकतर प्रजातियों में परागकणों को पानी के भीतर गीले श्लेष्मक आवरण द्वारा संरक्षित रखा जाता है।

 

वायु एवं जल परागित पुष्प न तो बहुत रंग युक्त होते हैं और न ही मकरंद पैदा करते हैं। इसका क्या कारण हो सकता है? 

  • अधिकतर पुष्पीय पादप परागण के लिए प्राणियों को परागण कर्मक/कारक के रूप में उपयोग करते हैं। मधुमक्खियाँभौरेतितलियाँबर्रचीटियाँशलभ या कीटपक्षी (शकखोरा तथा गुंजनपक्षी) तथा चमगादड़ आदि सामान्य परागणीय अभिकर्मक हैं। प्राणियों में कीट-पतंग विशेष रूप से मधुमक्खी प्रधान जीवीय परागण कर्मक हैं। यहाँ तक कि बड़े नर वानरगण के प्राणी (लीमर या लेम्यूर) वृक्षवासी (शाखा चारी) कृतक और यहाँ तक कि सरीसृपवर्ग (गीको छिपकली तथा उपवन छिपकली) भी कुछ प्रजाति के पादपों के परागण के लिए सक्रिय पाए गए हैं।
  • प्रायः प्राणि परागित पादपों के पुष्प एक विशिष्ट प्रजाति के प्राणि के लिए विशेष रूप से अनुकूलित होते हैं। 
  • अधिकतर कीट परागित पुष्प बड़ेरंगीन पूर्ण सुगंध युक्त तथा मकरंद से भरपूर होते हैं। जब पुष्प छोटे होते हैं तब अनेक पुष्प एक पुष्पवृंत में समूह बद्ध होकर अधिक उभर आते हैं। प्राणि रंगों एवं/अथवा सुगंध (महक) के कारण पुष्पों की ओर आकर्षित होते हैं। मक्खियों एवं बीटलों से परागणित होने वाले पुष्प मलिन गंध स्रावित करते हैंजिससे ये प्राणी आकर्षित होते हैं। 
  • प्राणियों से भेंट जारी रखने के लिए पुष्पों को कुछ लाभ या पारितोषिक उपलब्ध कराना होता है। मकरंद और परागकण फूलों द्वारा प्रदत्त आम पारितोषिक हैं। इस पारितोषिकों को पाने के लिए प्राणि आगंतुकों को परागकोश तथा वर्तिकाग्र के संपर्क में आना पड़ता है। प्राणि के शरीर पर परागकणों का एक आवरण सा चढ़ जाता हैजो प्राणि परागित फूलों में प्रायः चिपचिपा होता है। जब परागकणों से लिप्त प्राणि वर्तिकाग्र के संपर्क में आता है तो यह परागण पूरा करता है।
  • कुछ पुष्प प्रजातियों में यह पुरस्कार अंडा देने की सुरक्षित जगह के रूप में होता है। एक उदाहरण एमोरफोफेलस का लंबोतर पुष्प (पुष्प स्वतः लगभग 6 फुट ऊँचा होता है)। ठीक ऐसा ही एक सह-संबंध शलभ की एक प्रजाति और युका पादप के बीच होता है जहाँ दोनों ही प्रजाति-शलभ एवं पादप बिना एक दूसरे के बिना अपना जीवन चक्र नहीं पूरा कर सकते हैं। इसमें शलभ अपने अंडे पुष्प के अंडाशय के कोष्ठक में देती है। जबकि इसके बदले में वह शलभ द्वारा परागित होता है। शलभ का लारवा अंडे से बाहर तब आता है जब बीज विकसित होना प्रारंभ होता है।
  • परागकोश एवं वर्तिकाग्र के संपर्क में आने वाले भ्रमणकर्ता प्राणि का ध्यानपूर्वक अवलोकन करें जो परागण को पूरा करता हो। बहुत सारे कीट या भ्रमणकर्ता बिना परागण किए पराग या मकरंद का भक्षण कर लेते हैं। अतः ऐसे आगंतुकों या भ्रमणकारियों को पराग/मकरंद दस्यु के रूप में संदर्भित किया जाता है। आप शायद परागणकारियों को पहचान सके या न पहचान सकेंपर आप निश्चित रूप से अपने प्रयास में आनंद प्राप्त करेंगे। 

बहिःप्रजनन युक्तियाँ 

  • अधिकतर पुष्पीय पादप उभयलिंगी पुष्पों एवं परागकणों को उत्पन्न करते हैं जो बहुत हद तक उसी पुष्प के वर्तिकाग्र के संपर्क में आते हैं। निरंतर स्व परागण के फलस्वरूप प्रजनन में अन्तः प्रजनन अवनमन होता है। पुष्पीय पादपों ने बहुत सारे ऐसे साधन या उपाय विकसित कर लिए हैं जो स्वपरागण को हतोत्साहित एवं परपरागण को प्रोत्साहित करते हैं। 
  • कुछ प्रजातियों में पराग अवमुक्ति एवं वर्तिकाग्र ग्राह्यता समकालिक नहीं होती है या तो वर्तिकाग्र के तैयार होने से पहले ही पराग अवमुक्त कर दिए जाते हैं या फिर परागों के झड़ने से काफी पहले ही वर्तिकाग्र ग्राह्य बन जाता है। 
  • कुछ प्रजातियों में परागकोश एवं वर्तिकाग्र भिन्न स्थानों पर अवस्थित होते हैं। जिससे उसी पादप में पराग वर्तिकाग्र के संपर्क में नहीं आ पाते हैं। दोनों ही युक्तियाँ स्वयुग्मन रोकती हैं। अन्तः प्रजनन रोकने का तीसरा साधन स्व-असामंजस्य है। यह एक वंशानुगत प्रक्रम तथा स्वपरागण रोकने का उपाय है। उसी पुष्प या उसी पादप के अन्य पुष्प से जहाँ बीजांड के निषेचन को पराग अंकुरण या स्त्रीकेसर में परागनलिका वृद्धि को रोका जाता है। 
  • स्वपरागण को रोकने के लिए एक अन्य साधन हैएकलिंगीय पुष्पों का उत्पादन। अगर एक ही पौधे पर नर एवं मादा दोनों ही पुष्प उपलब्ध हो जैसे एरंडमक्का (उभयलिंगाश्रयी)यह स्वपरागण को रोकता है न कि सजातपुष्पी परागण को। 
  • अन्य बहुत सारी प्रजातियों जैसे पपीता में नर एवं मादा पुष्प भिन्न पादपों पर होते हैं अर्थात् प्रत्येक पादप या तो मादा या नर है (एकलिंगाश्रयी)। यह परिस्थिति स्वपरागण तथा सजातपुष्पी परागण दोनों को अवरोधित करती हैं।

 

पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण (पारस्परिकक्रिया) 

  • परागण बिल्कुल सही प्रकार के परागकणों का स्थानांतरण सुनिश्चित नहीं कराता है (ठीक उसी प्रजाति का सुयोग्य पराग वर्तिकाग्र तक पहुँचे)। प्रायः गलत प्रकार के पराग भी उसी वर्तिकाग्र पर आ पड़ते हैं (जिसमें येया तो उसी पादप से होते हैं या फिर अन्य पादप से (यदि वह स्व परागण के अयोग्य है)। 
  • स्त्रीकेसर में यह सक्षमता होती है कि वह पराग को पहचान सके कि वह उसी वर्ग के सही प्रकार का पराग (सुयोग्य) है या फिर गलत प्रकार का (अयोग्य) है। यदि पराग सही प्रकार का होता है तो स्त्रीकेसर उसे स्वीकार कर लेता है तथा परागण पश्च घटना के लिए प्रोत्साहित करता है जो कि निषेचन की ओर बढ़ता है। यदि पराग गलत प्रकार का होता है तो स्त्रीकेसर वर्तिकाग्र पर पराग अंकुरण या वर्तिका में पराग नलिका वृद्धि रोककर पराग को अस्वीकार कर देता है। 
  • एक स्त्रीकेसर द्वारा पराग के पहचानने की सक्षमता उसकी स्वीकृति या अस्वीकृति द्वारा अनुपालित होती हैजो परागकणों एवं स्त्रीकेसर के बीच निरंतर संवाद का परिणाम है। इस संवाद की मध्यस्थता स्त्रीकेसर तथा पराग के रासायनिक घटकों के संकर्षण द्वारा होता है। अभी हाल ही में कुछ वनस्पति विज्ञानियों ने स्त्रीकेसर एवं पराग के घटकों को पहचाना है तथा उनके बीच संकर्षण (परस्परक्रिया) को स्वीकृति या अस्वीकृति के अनुपालन से जाना है। 
  • जैसा कि पहले बताया जा चुका हैसुयोग्य परागण के अनुपालन मेंपरागकण वर्तिकाग्र पर जनित होते हैं ताकि एक जनन छिद्र के माध्यम से एक परागनलिका उत्पन्न हो । पराग नलिका वर्तिकाग्र तथा वर्तिका के ऊतकों के माध्यम से वृद्धि करती है और अंडाशय तक पहुँचती है  
  • इस प्रकार के पादपों में जनन कोशिका विभाजित होती है और वर्तिकाग्र में परागनलिका की वृद्धि के दौरान दो नर युग्मकों की रचना करती है। जिन पादपों में पराग तीन कोशीय स्थिति में होते हैंवहाँ परागनलिका शुरूआत से ही दो नर युग्मकों को ले जाती है।

 

  • परागनलिका अंडाशय में पहुँचने के पश्चात्बीजांड द्वार के माध्यम से बीजांड में प्रविष्ट करती है और तत्पश्चात् तंतुमय समुच्चय के माध्यम से एक सहाय कोशिका में प्रविष्ट करती है (। हाल ही के बहुत सारे अध्ययन यह दर्शाते हैं कि सहाय कोशिका के बीजांडद्वारी हिस्से पर उपस्थित तंतुरूपसमुच्चय पराग नलिका के प्रवेश को दिशा निर्देशित करती है। वर्तिकाग्र पर पराग अवस्थित होने से लेकर बीजांड में पराग नलिका के प्रविष्ट होने तक की सभी घटनाओं को परागस्त्रीकेसर संकर्षण के नाम से संबोधित किया जाता है। जैसा कि पहले भी बताया गया है पराग स्त्रीकेसर संकर्षण एक गतिक प्रक्रम है जिसमें पराग पहचान के साथ पराग को प्रोन्नति या अवनति द्वारा अनुपालन सम्मिलित है। इस क्षेत्र के बारे में ज्ञान प्राप्त करने से पादप प्रजनकों को पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण के हेर-फेर मेंयहाँ तक कि अयोग्य परागण से अपेक्षित संकर (जाति) प्राप्त करने में मदद प्राप्त होगी। 

कृत्रिम संकरीकरण

  • आप एक काँच की पट्टी (स्लाइड) पर जल शर्करा घोल (10 प्रतिशत घोल) की एक बूँद पर मटरचना (चिकपी)क्रोटालेरियाबालसम (गुलमेंहदी) तथा विनका (सदाबहार) के पुष्पों से कुछ पराग झाड़ कर गिराने के पश्चात् पराग जनन का अध्ययन आसानी के साथ कर सकते हैं। स्लाइड पर इन्हें रखने के 15 से 30 मिनट के बाद स्लाइड को कम शक्ति (लो पावर) के लेंस वाले सूक्ष्मदर्शी यंत्र पर रखकर अवलोकित करें। बहुत संभव है कि आप परागकणों से निकलती हुई पराग नलिकाओं को देख पाएँ। एक प्रजनक भिन्न प्रजातियों के संकरण (क्रासिंग) में तथा वाणिज्यिक रूप से सर्वोत्तम श्रेणी के अपेक्षित विशिष्टता वाले जनन सम्पाक् में रूचि रखते हैं। कृत्रिम संकरीकरण फसल की उन्नति या प्रगतिशीलता कार्यक्रम के लिए एक प्रमुख उपागम है। इस प्रकार के संकरण प्रयोगों हेतुयह सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है कि केवल अपेक्षित परागों का उपयोग परागण के लिए किया जाए तथा वर्तिकाग्र को संदूषण (अनापेक्षित परागों) से बचाया जाए। यह उपलब्धि केवल बोरावस्त्र तकनीक (बैगिंग टेकनीक) तथा विपुंसन तकनीक द्वारा पाई जा सकती है।

 विपुंसन

  • यदि कोई मादा जनक द्विलिंगी पुष्पधारण करता है तो पराग के प्रस्फुटन से पहले पुष्प कलिका से पराग कोश के निष्कासन हेतु एक जोड़ा चिमटी का इस्तेमाल आवश्यक होता है। इस चरण को विपुंसन के रूप में संदर्भित किया जाता है। 
  • विपुंसित पुष्पों को उपयुक्त आकार की थैली से आवृत किया जाना चाहिए जो सामान्यतः बटर पेपर (पतले कागज़) की बनी होती है। ताकि इसके वर्तिकाग्र को अवांछित परागों से बचाया जा सके। इस प्रक्रम को बैगिंग (या बोरा-वस्त्रावरण) कहते हैं। जब बैगिंग (वस्त्रावृत) पुष्प का वर्तिकाग्र सुग्राह्यता को प्राप्त करता है तब नर अभिभावक से संग्रहीत पराग कोश के पराग को उस पर छिटका जाता है और उस पुष्प को पुनः आवरित करकेउसमें फल विकसित होने के लिए छोड़ दिया जाता है।

 

  • यदि मादा जनक एकलिंगीय पुष्प को पैदा करता है तो विपुंसन की आवश्यकता नहीं होती है। पुष्पों के खिलने से पूर्व ही उन्हें आवृत कर दिया जाता है। जब वर्तिकाग्र सुग्राह्य बन जाता है तब अपेक्षित पराग के उपयोग द्वारा परागण करके पुष्प को पुनः आवृत (रिबैगाड) कर दिया जाता है।

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