पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन | पुंकेसर, लघुबीजाणुधानी तथा परागकण | Anther NCERT

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पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन , पुंकेसर, लघुबीजाणुधानी तथा परागकण

पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन | पुंकेसर, लघुबीजाणुधानी तथा परागकण | Anther NCERT


पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन 

  • सभी पुष्पीपादप लैंगिक प्रजनन प्रदर्शित करते हैं। पुष्पक्रमों, पुष्पों तथा पुष्पी अंगों की संरचना की विविधता पर एक दृष्टि डालें तो वे अनुकूलन की एक व्यापक परिधि को दर्शाते हैं ताकि लैंगिक जनन का अंतिम उत्पाद, फल और बीज की रचना सुनिश्चित हो सके। 

 निषेचन-पूर्व-संरचनाएँ एवं घटनाएँ 

  • पादप में वास्तविक रूप से पुष्प विकसित होने से पूर्व यह तय हो जाता है कि पादप में पुष्प आने वाले हैं। अनेकों हार्मोनल तथा संरचनात्मक परिवर्तनों की शुरुआत होने लगती है, जिसके फलस्वरूप पुष्पीय आद्यक (फ्लोरल प्राइर्मोडियम) के मध्य विभेदन एवं अग्रिम विकास प्रारम्भ होते हैं। पुष्पक्रम की रचना होती है, जो पुष्पी कलिकाएँ और बाद में पुष्प को धारण करती हैं। 
  • पुष्प में नर एवं मादा जनन संरचनाएँ-पुमंग तथा जायांग विभेदित एवं विकसित रहती हैं।पुमंगों से भरपूर पुंकेसरों का गोला (एक चक्कर) नर जनन अंग का तथा जायांग स्त्री (मादा) जनन अंग का प्रतिनिधित्व करता है।

 

1 पुंकेसर, लघुबीजाणुधानी तथा परागकण 

  • एक विशिष्ट (प्रारूपी) पुंकेसर दो भागों में विभक्त रहता है-इसमें लंबा एवं पतला डंठल तंतु (फिलामेंट) कहलाता है तथा अंतिम सिरा सामान्यतः द्विपालिक संरचना परागकोश कहलाता है। तंतु का समीपस्थ छोर पुष्प के पुष्पासन या पुष्पदल से जुड़ा होता है। 
  • पुंकेसरों की संख्या एवं लंबाई विभिन्न प्रजाति के पुष्पों में भिन्न होती है। अगर आप दस पुष्पों (प्रत्येक भिन्न प्रजाति) से एक-एक पुंकेसर एकत्र करें और उन्हें एक स्लाइड पर रखें तो आप देखेंगे कि इनके आकार में बहुत भिन्नता है, जो प्रकृति में विद्यमान है। 
  • एक प्रारूपिक आवृतबीजी परागकोश द्विपालित होते हैं। तथा प्रत्येक पाली में दो कोष्ठ होते हैं, अर्थात् ये द्विकोष्ठी होते हैं । प्रायः एक अनुलंब खांच प्रवारक (कोष्ठ) को अलग करते हुए लंबवत् गुजरता है।

परागकोश अनुप्रस्थ काट

  • एक परागकोश की द्विपालित प्रकृति, परागकोश के अनुप्रस्थ काट में बहुत ही पृथक या सुव्यक्त होती है।
  • परागकोश एक चार दिशीय (चतुष्कोणीय) संरचना होती है जिसमें चार कोनों पर लघुबीजाणुधानी समाहित होती है, जो प्रत्येक पालि में दो होती हैं। यह लघुबीजाणुधानी आगे विकसित होकर परागपुटी (पोलेन सैक्स) बन जाती है। यह अनुलंबवत् एक परागकोश की लंबाई तक विस्तारित होते हैं और परागकणों से ठसाठस भरे होते हैं।

 

लघुबीजाणुधानी की संरचना – 

  • एक अनुप्रस्थ काट में, एक प्ररूपी लघुबीजाणुधानी बाह्य रूपरेखा में लगभग गोलाई में प्रकट होती है। यह सामान्यतः चार भित्तिपर्तों से आवृत होती है (एपीडर्मीस) बाह्यत्वचा, एंडोथेसियम (अंतस्थीसियम), मध्यपर्त तथा टेपीटम बाहर की ओर की तीन पर्ते संरक्षण प्रक्रिया का कार्य करती हैं तथा परागकोश के स्फुटन में मदद कर परागकण अवमुक्त करती हैं। 
  • लघुबीजाणुधानी की सबसे आंतरिक पर्त टेपीटम होती है। यह विकासशील परागकणों को पोषण देती है। टेपीटम की कोशिकाएँ सघन जीवद्रव्य (साइटोप्लाज्म) से भरी होती हैं और सामान्यतः एक से अधिक केंद्रकों से युक्त होती है।  
  • जब एक परागकोश अपरिपक्व होता है तब घने सुसंबद्ध सजातीय कोशिकाओं का समूह जिसे बीजाणुजन ऊत्तक कहते हैं, लघुबीजाणुधानी के केंद्र में स्थित होता है। 

लघुबीजाणुजनन

  • जैसे-जैसे परागकोश विकसित होता है, बीजाणुजन ऊत्तकों की कोशिकाएँ अर्धसूत्री विभाजन द्वारा सूक्ष्म बीजाणु चतुष्टय बनाती हैं।  
  • जैसाकि बीजाणुजन ऊत्तक की प्रत्येक कोशिका एक लघुबीजाणु चतुष्टय की वृद्धि करने में सक्षम होती है। प्रत्येक कोशिका एक सक्षम पराग मातृकोशिका होती है। 
  • एक पराग मातृकोशिका से अर्धसूत्री विभाजन द्वारा लघुबीजाणु के निर्माण की प्रक्रिया को लघुबीजाणुधानी कहते हैं। 
  • जैसा कि लघुबीजाणु रचना के समय चार कोशिकाओं के समूह में व्यवस्थित होते हैं उन्हें लघुबीजाणु चतुष्टय/चतुष्क कहते हैं । जैसे ही परागकोश परिपक्व एवं स्फुरित होता है तब लघुबीजाणु एक-दूसरे से विलग हो जाते हैं और परागकणों  के रूप में विकसित हो जाते हैं। 
  • प्रत्येक लघुबीजाणुधानी के अंदर कई हजार लघुबीजाणु और परागकण निर्मित होते हैं, परागकण जो परागकोश के स्फुटन के साथ मुक्त होते हैं। 

 

परागकण - 

  • नर युग्मकोद्भव का प्रतिनिधित्व करता है। यदि आप हिबिसकस (गुड़हल) या किसी अन्य पुष्प के खुले परागकोश को छूते हैं तो आप अपनी अंगुलियों में पीले रंग के पाउडर जैसे परागकणों को पाते हैं।  

बाह्यचोल

  • परागकण सामान्यतः गोलाकार (गोलीय) होते हैं, जिनका व्यास लगभग 25-50 माइक्रोमीटर होता है इनमें सुस्पष्ट रूप से दो पर्तों वाली भित्ति होती है। कठोर बाहरी भित्ति को बाह्यचोल कहते हैं जो कि स्पोरोपोलेनिन से बनी होती है, जो सर्वाधिक ज्ञात प्रतिरोधक कार्बनिक सामग्री है। यह उच्चताप तथा सुदृढ़ अम्लों एवं क्षारों के सम्मुख टिक सकती है। अभी तक ऐसा कोई एंजाइम पता नहीं चला है जो स्पोरोपोलेनिन को निम्नीकृत कर सकें। 
  • परागकण के बाह्यचोल में सुस्पष्ट द्वारक या रंध्र होते हैं जिन्हें जननछिद्र कहते हैं। जहाँ पर स्पोरोपोलेनिन अनुपस्थित होते हैं। 
  • परागकण जीवाश्मों की भाँति बहुत अच्छे से संरक्षित होते हैं; क्योंकि उनमें स्पोरोपोलेनिन की उपस्थिति होती है। 

अंतःचोल 

  • परागकण की आंतरिक भित्ति को अंतःचोल कहा जाता है। यह एक पतली तथा सतत् पर्त होती है जो सेलूलोज एवं पेक्टिन की बनी होती है। 
  • परागकण का जीवद्रव्य (साइटोप्लाज्म) एक प्लाज्मा भित्ति से आवृत होता है। जब परागकण परिपक्व होता है तब उसमें दो कोशिकाएँ कायिक कोशिका तथा जनन कोशिका समाहित होती है.
  • कायिक कोशिका बड़ी होती है जिसमें प्रचुर खाद्य भंडार तथा एक विशाल अनियमित आकृति का केंद्रक होता है। 
  • जनन कोशिका छोटी होती है तथा कायिक कोशिका के जीव द्रव्य में तैरती रहती है। यह तुर्कु आकृति, घने जीवद्रव्य और एक केंद्रक वाला है। 
  • 60 प्रतिशत से अधिक आवृतबीजी पादपों के परागकण इस दो कोशीय चरण में झड़ते या संगलित होते हैं। शेष प्रजातियों में जनन कोशिका सम-सूत्री विभाजन द्वारा विभक्त होकर परागकण के झड़ने से पहले (तीन-चरणीय) दो नर युग्मकों को बनाते हैं।

 

परागकण एलर्जी 

  • अनेक प्रजातियों के परागकण कुछ लोगों में गंभीर एलर्जी एवं श्वसनी वेदना पैदा करते हैं जो कभी-कभी चिरकालिक श्वसन विकार दमा, श्वसनी शोथ आदि के रूप में विकसित हो जाती है। 
  • भारत में आयातित गेहूँ के साथ आने वाली गाजर-घास या पार्थेनियम की उपस्थिति सर्वव्यापक हो गई हैं, जो परागकण एलर्जी कारक है।

 परागकण पोषणों से भरपूर

  • परागकण पोषणों से भरपूर होते हैं। आहार संपूरकों के रूप में पराग गोलियों (टैबलेट्स) के लेने का प्रचलन बढ़ा है। 
  • पश्चिमी देशों में; भारी मात्रा में पराग उत्पाद गोलियों एवं सीरप के रूप में बाजारों में उपलब्ध हैं.
  • पराग खपत का यह दावा है कि यह खिलाड़ियों एवं धावक अश्वों (घोड़ों) की कार्यदक्षता में वृद्धि करता है

 परागकण में जीवन क्षमता

  • परागकण जब एक बार झड़ते हैं तो ये अपनी जीवनक्षमता (अंकुर क्षमता) खोने से पहले वर्तिकाग्र पर गिरते हैं जहाँ यदि आवश्यकता हुई तो निषेचन करते हैं। 
  • कौन सा परागकण कितने समय तक जीवनक्षम रहता है, बहुत विविधताएँ पाई जाती हैं, बहुत हद तक यह विद्यमान तापमान एवं आर्द्रता पर निर्भर करता है। कुछ अनाजों जैसे धान एवं गेहूँ में; परागकण अपनी जीवन क्षमता बहुत जल्दी लगभग 30 मिनट में ही खो देते हैं जबकि गुलाबवत् (रोजेसी) लेग्यूमिनोसी तथा सोलैनेसी आदि कुछ सदस्यों में परागकणों की जीवन क्षमता महीनों तक बनी रहती है। 
  • कृत्रिम गर्भाधान के लिए मानव सहित बहुत से जानवरों के वीर्य / शुक्राणुओं का भंडारण किया जाता है। बहुत से प्रजाति के परागकणों को द्रव नाइट्रोजन (-196°C) में कई वर्षों तक भंडारित करना सम्भव है। इस प्रकार से भंडारित पराग का प्रयोग बीज भंडार (बैंक) की भाँति पराग भंडारों (बैंकों) के रूप में फसल प्रजनन कार्यक्रम में किया जा सकता है।

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