युग्मकजनन अंडजनन (ऊजेनेसिस) |GAMETOGENESIS Oogenesis

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 युग्मकजनन अंडजनन (ऊजेनेसिस)

युग्मकजनन अंडजनन (ऊजेनेसिस) |GAMETOGENESIS Oogenesis


युग्मकजनन (GAMETOGENESIS) 

  • प्राथमिक लैंगिक अंग - पुरुषों में वृषण और स्त्रियों में अंडाशय युग्मकजनन (गैमीटोजेनेसिस) विधि द्वारा क्रमशः नर युग्मक यानी शुक्राणु और मादा युग्मक यानी अंडाणु उत्पन्न करते हैं। 
  • वृषण मेंअपरिपक्व नर जर्म कोशिकाएँ (शुक्राणुजन/स्पर्मेटोगोनिया-बहुवचनएकवचन-स्पर्मेटोगोनियम) शुक्रजनन (स्पर्मेटोजेनेसिस) द्वारा शुक्राणु उत्पन्न करती हैं जो कि किशोरावस्था के समय शुरू होती है। शुक्रजनक नलिकाओं (सेमिनिफेरस ट्यूब्यूल्स) की भीतरी भित्ति में उपस्थित शुक्राणुजन समसूत्री विभाजन (माइटोटिक डिविजन) द्वारा संख्या में वृद्धि करते हैं। 
  • प्रत्येक शुक्राणुजन द्विगुणित होता है और उसमें 46 गुणसूत्र (क्रोमोसोम) होते हैं। कुछ शुक्राणुजनों में समय-समय पर अर्धसूत्री विभाजन या अर्धसूत्रण (मिओटिक डिविजन) होता है जिनको प्राथमिक शुक्राणु कोशिकाएँ (प्राइमरी स्पर्मेटोसाइट्स) कहते हैं। 
  • एक प्राथमिक शुक्राणु कोशिका प्रथम अर्धसूत्री विभाजन (न्यूनकारी विभाजन) को पूरा करते हुए दो समान अगुणित कोशिकाओं की रचना करते हैंजिन्हें द्वितीयक शुक्राणु कोशिकाएँ (सेकेंडरी स्पर्मेटोसाइट्स) कहते हैं। इस प्रकार उत्पन्न प्रत्येक कोशिका में 23 गुणसूत्र होते हैं। द्वितीयक शुक्राणु कोशिकाएँदूसरे अर्धसूत्री विभाजन से गुजरते हुए चार बराबर अगुणित शुक्राणुप्रसू (स्पर्मेटिड्स) पैदा करते हैं शुक्राणुप्रसुओं में गुणसूत्रों की संख्या कितनी होनी चाहिएशुक्राणुप्रसू रूपांतरित होकर शुक्राणु (स्पर्मेटोजोआ/स्पर्म) बनाते हैं और इस प्रक्रिया को शुक्राणुजनन (स्पर्मिओजेनेसिस) कहा जाता है। 
  • शुक्राणुजनन के पश्चात् शुक्राणु शीर्ष सर्टोली कोशिकाओं में अंतःस्थापित (इंबेडेड) हो जाता है और अंत में जिस प्रक्रिया द्वारा शुक्राणुशुक्रजनक नलिकाओं से मोचित (रिलीज) होते हैंउस प्रक्रिया को (वीर्यसेचन) स्पर्मिएशन कहते हैं। 
  • शुक्रजनन प्रक्रिया किशोरावस्था / यौवनारंभ से होने लगती है क्योंकि इस दौरान गोनैडोट्रॉपिन रिलीजिंग हार्मोन (जीएनआरएच) के स्रवण में काफी वृद्धि हो जाती है। आपको याद होगा कि यह एक अधश्चेतक (हाइपोथैलमिक) हॉर्मोन है। गोनैडोट्रॉपिन रिलीजिंग हार्मोन के स्तर में वृद्धि के कारण यह अग्र पीयूष ग्रंथि (एंटिरियर पिट्यूटरी ग्लैंड) पर कार्य करता है तथा दो गोनैडोट्रॉपिन हॉर्मोन-पीत पिंडकर (ल्यूटिनाइजिंग हार्मोन/एल एच) और पुटकोद्दीपक हॉर्मोन (फॉलिकल स्टिमुलेटिंग हॉर्मोन / एफ एस एच) के स्रवण को उद्दीपित करता है। एल एच लीडिग कोशिकाओं पर कार्य करता है और पुंजनों (एंड्रोजेन्स) के संश्लेषण और स्रवण को उद्दीपित करता है। इसके बदले में पुंजन शुक्राणुजनन की प्रक्रिया को उद्दीपित करता है। एफ एस एच सर्टोली कोशिकाओं पर कार्य करता है और कुछ घटकों के स्रवण को उद्दीपित करता हैजो शुक्राणुजनन की प्रक्रिया में सहायता करते हैं।

 शुक्राणु की संरचना

  • यह एक सूक्ष्मदर्शीय संरचना है जो एक शीर्ष (हेड)ग्रीवा (नेक)एक मध्य खंड (मिड्ल पीस) और एक पूँछ (टेल) की बनी होती है । एक प्लाज्मा झिल्ली शुक्राणु की पूरी काया (बॉडी) को आवृत्त किए रहती है। 
  • शुक्राणु के शीर्ष में एक दीर्घाकृत (इलांगेटेड) अगुणित केंद्रक (हेप्लॉयड न्यूक्लियस) होता है तथा इसका अग्रभाग एक टोपीनुमा संरचना से आवृत होता है जिसे अग्रपिंडक (एक्रोसोम) कहते हैं। यह अग्रपिंडक उन प्रकिण्वों (एंजाइम्स) से भरा होता हैजो अंडाणु के निषेचन में मदद करते हैं।
  • शुक्राणु के मध्य खंड में असंख्य सूत्रकणिकाएँ (माइटोकॉन्ड्रिया) होती हैंजो पूँछ को गति प्रदान करने के लिए ऊर्जा उत्पन्न करती हैं जिसके कारण शुक्राणु को निषेचन करने के लिए आवश्यक गतिशीलता प्रदान करना सुगम बनाता है। 
  • मैथुन क्रिया के दौरान पुरुष 20 से 30 करोड़ शुक्राणु स्खलित करता है सामान्य उर्वरता (अबंधता) से लगभग 60 प्रतिशत शुक्राणु निश्चित रूप से सामान्य आकार और आकृति वाले होने चाहिए। इनमें से कम से कम 40 प्रतिशत आवश्यक रूप से सामान्य जनन क्षमता के लिए तीव्र गतिशीलता प्रदर्शित करते हैं। 
  • शुक्रजनक नलिकाओं से मोचित (रिलीज्ड) शुक्राणु सहायक नलिकाओं द्वारा वाहित (ट्रांसपोर्टेड) होते हैं। शुक्राणुओं की परिपक्वता एवं गतिशीलता के लिए अधिवृषणशुक्रवाहकशुक्राशय तथा पुरस्थ ग्रंथियों का स्रवण भी आवश्यक है। शुक्राणुओं के साथ-साथ शुक्राणु प्लाज्मा मिलकर वीर्य (सीमेन) बनाते हैं। पुरुष की सहायक नलिकाओं और ग्रंथियों के कार्य को वृषण हार्मोन (ऐंड्रोजेंस) बनाये रखता है। 

अंडजनन (ऊजेनेसिस)

  • एक परिपक्व मादा युग्मक के निर्माण की प्रक्रिया को अंडजनन (ऊजेनेसिस) कहते हैंजोकि पुरुष के शुक्राणुजनन से स्पष्ट रूप से भिन्न है। अंडजनन की शुरूआत भ्रूणीय परिवर्धन चरण के दौरान होती है जब कई मिलियन मातृ युग्मक कोशिकाएँ यानि अंडजननी (ऊगोनिया) प्रत्येक भ्रूणीय अंडाशय के अंदर विनिर्मित होती हैं। जन्म के बाद अंडजननी का निर्माण और उसकी वृद्धि नहीं होती है। इन कोशिकाओं में विभाजन शुरू हो जाता है और अर्धसूत्री विभाजन के पूर्वावस्था-1 (प्रोफेज-1) में प्रविष्ट होती हैं और इस अवस्था में स्थायी तौर पर अवरूद्ध रहती हैं। इन्हें प्राथमिक अंडक (प्राइमरी ऊसाइटस) कहते हैं।
  • उसके बाद प्रत्येक प्राथमिक अंडक कणिकामय कोशिकाओं (ग्रेनुलोसा सेल्स) की परत से आवृत्त होती है और इन्हें प्राथमिक पुटक (प्राइमरी फॉलिकिल) कहा जाता है । एक प्रक्रिया द्वारा इन पुटकों की भारी मात्रा में जन्म से यौवनारम्भ तक ह्रास होता रहता हैइसलिए यौवनारम्भ के समय प्रत्येक अंडाशय में केवल 60 हजार से 80 हजार प्राथमिक पुटक ही शेष बचते हैं। यह प्राथमिक पुटक कणिकामय कोशिकाओं के और अधिक परतों से आवृत्त हो जाते हैं तथा एक और नए प्रावरक (थिकल) स्तर से घिर जाते हैं जिसे द्वितीयक पुटक कहते हैं। 
  • यह द्वितीयक पुटक जल्द ही एक तृतीय पुटक में परिवर्तित हो जाता है। जिसकी तरल से भरी गुहा को गह्वर (एंट्रम) कहा जाता है, यह इसका एक विशिष्ट लक्षण है। प्रावरक स्तर (थीका लेयर) अंतर प्रावरक (थीका इंटरना) और बाह्य प्रावरक (थीका एक्सटरना) में गठित होता है। इस समय आपका ध्यान इस ओर खींचना महत्त्वपूर्ण होगा कि तृतीय पुटक के भीतर प्राथमिक अंडक के आकार में वृद्धि होती है और इसका पहला अर्धसूत्री विभाजन पूरा होता है। यह एक असमान विभाजन हैजिसके फलस्वरूप वृहत अगुणित द्वितीयक अंडक तथा एक लघु प्रथम ध्रुवीय पिंड की रचना होती है। 
  • द्वितीयक अंडकप्राथमिक अंडक के पोषक से भरपूर कोशिका प्रद्रव्य (साइटोप्लाज्म) की मात्रा को संचित रखती है। क्या आप इसके किसी लाभ के बारे में सोच सकते हैंक्या पहले अर्धसूत्री विभाजन से उत्पन्न प्रथम ध्रुवीय पिंड में और अधिक विभाजन होता है या इसमें ह्रास हो जाता हैवर्तमान में हम इसके बारे में सुनिश्चित रूप से बहुत कुछ नहीं कह सकते हैं। तृतीय पुटक आगे चलकर परिपक्व पुटक या ग्राफी पुटक (ग्रैफियन फॉलिकिल) में परिवर्तित हो जाता है.
  •  द्वितीयक अंडक अपने चारों ओर एक नई झिल्ली का निर्माण करता है जिसे पारदर्शी अंडावरण (जोना पेल्यूसिडा) कहते हैं। अब ग्राफी पुटक फटकर द्वितीयक अंडक (अंडाणु) को अंडाशय से मोचित करता हैइस प्रक्रिया को अंडोत्सर्ग (ओवुलेशन) कहा जाता है। 

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