निषेचन एवं अंतर्रोपण सगर्भता तथा भ्रूणीय परिवर्धन |PREGNANCY AND EMBRYONIC DEVELOPMENT

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 निषेचन एवं अंतर्रोपण सगर्भता तथा भ्रूणीय परिवर्धन

निषेचन एवं अंतर्रोपण सगर्भता तथा भ्रूणीय परिवर्धन


आर्तव चक्र (MENSTRUAL CYCLE) 

  • मादा प्राइमेटों में होने वाले जनन चक्र को आर्तव चक्र (मेन्सटुअल साइकिल) या सामान्य जनों की भाषा में मासिक धर्म या माहवारी कहते हैं। 
  • प्रथम ऋतुस्राव/रजोधर्म (मेन्सटुएशन) की शुरूआत यौवनारंभ पर शुरू होती हैजिसे रजोदर्शन (मेनार्क) कहते हैं। स्त्रियों में यह आर्तव चक्र प्रायः 28/29 दिनों की अवधि के बाद दोहराया जाता हैइसीलिए एक रजोधर्म से दूसरे रजोधर्म के बीच घटना चक्र को आर्तव चक्र (मेन्सट्रुअल साइकिल) कहा जाता है। प्रत्येक आर्तव चक्र के मध्य में एक अंडाणु उत्सर्जित किया जाता है या अंडोत्सर्ग होता है।
  • आर्तव चक्र की शुरूआत आर्तव प्रावस्था से होती है जबकि रक्तस्राव होने लगता है। यह रक्तस्राव 3-5 दिनों तक जारी रहता है। गर्भाशय से इस रक्तस्राव का कारण गर्भाशय की अंतःस्तर परत और उसकी रक्त वाहिनियों के नष्ट होना है जो एक तरल का रूप धारण करता है और योनि से बाहर निकलता है। रजोधर्म तभी आता है जब मोचित अंडाणु निषेचित नहीं हुआ हो। 
  • रजोधर्म की अनुपस्थिति गर्भ धारण का संकेत है। यद्यपि इसके अन्य कारण जैसे- तनावनिर्बल स्वास्थ्य आदि भी हो सकते हैं। 
  • आर्तव प्रावस्था के बाद पुटकीय प्रावस्था आती है। इस प्रावस्था के दौरान गर्भाशय के भीतर के प्राथमिक पुटक में वृद्धि होती है और यह एक पूर्ण ग्राफी पुटक बन जाता है तथा इसके साथ-साथ गर्भाशय में प्रचुरोद्भवन (प्रोलिफरेशन) के द्वारा गर्भाशय अंतःस्तर पुनः पैदा हो जाता है। 
  • अंडाशय और गर्भाशय के ये परिवर्तन पीयूष ग्रंथि तथा अंडाशयी हॉर्मोन की मात्रा के स्तर में बदलावों से प्रेरित होते हैं । पुटक प्रावस्था के दौरान गोनैडोट्रॉपिन (एल एच एवं एफ एस एच) का स्रवण धीरे-धीरे बढ़ता है। यह स्राव पुटक परिवर्धन के साथ-साथ वर्धमान पुटक द्वारा ऐस्ट्रोजन के स्रवण को उद्दीपित करता है। एल एच तथा एफ एस एच दोनों ही आर्तव चक्र के मध्य (लगभग 14वें दिन) अपनी उच्चतम स्तर को प्राप्त करते हैं। मध्य चक्र के दौरान एल एच का तीव्र स्रवण जब अधिकतम स्तर पर होता हैतो इसे एल एच सर्ज कहा जाता है। यह ग्राफी पुटक को फटने के लिए प्रेरित करता हैजिसके कारण अंडाणु मोचित हो जाता है यानी अंडोत्सर्ग (ओवुलेशन) होता है। 
  • अंडोत्सर्ग के पश्चात् पीत प्रावस्था होती हैजिसके दौरान ग्राफी पुटक का शेष बचा हुआ भाग पीत पिंड (कार्पस ल्युटियम) का रूप धारण कर लेता है । यह पीत पिंड भारी मात्रा में प्रोजेस्ट्रॉन स्रवित करता हैजो कि गर्भाशय अंतःस्तर को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। इस प्रकार गर्भाशय अंतःस्तर निषेचित अंडाणु के अंतर्रोपण (इम्प्लांटेशन) तथा सगर्भता की अन्य घटनाओं के लिए आवश्यक है।
  • सगर्भता के दौरान आर्तव चक्र की सभी घटनाएँ बंद हो जाती हैं इसीलिए इस समय रजोधर्म नहीं होता है। जब निषेचन नहीं होता हैतो पीत पिंड में ह्रास होता है और यह अंतः स्तर का विखंडन करता हैजिससे कि फिर से रजोधर्म का नया चक्र शुरू हो जाता है यानी माहवारी पुनः होती है। स्त्री में यह आर्तव चक्र 50 वर्ष की आयु के लगभग बंद हो जाता है इस स्थिति को रजोनिवृत्ति (मीनोपॉज) कहा जाता है। इस प्रकार रजोदर्शन से लेकर रजोनिवृत्ति की अवस्था में चक्रीय रजोधर्म सामान्य जनन अवधि का सूचक है।

 

निषेचन एवं अंतर्रोपण FERTILISATION AND IMPLANTATION 

  • स्त्री एवं पुरुष के संभोग (मैथुन) के दौरान शिश्न द्वारा शुक्र (वीर्य) स्त्री की योनि में छोड़ा जाता है यानी वीर्यसेचन होता है। गतिशील शुक्राणु तेजी से तैरते हुए गर्भाशय ग्रीवा से होकर गर्भाशय में प्रवेश करते हैं और अंततः अंडवाहिनी नली के तुंबिका (एंपुला) क्षेत्र तक पहुँचते हैं । इसी बीच अंडाशय द्वारा मोचित अंडाणु भी तुंबिका क्षेत्र तक पहुँच जाता हैजहाँ निषेचन की क्रिया संपन्न होती है। निषेचन तभी हो सकता है यदि अंडाणु तथा शुक्राणु दोनों एक ही समय में तुंबिका क्षेत्र पर पहुँच जाएँ। यही कारण है जिससे कि सभी संभोग क्रियाएँ निषेचन व सगर्भता की स्थिति में नहीं पहुँच पाती हैं। 
  • शुक्राणु के साथ एक अंडाणु के संलयन की प्रक्रिया को निषेचन (फर्टिलाइजेशन) कहते हैं। निषेचन के दौरान एक शुक्राणु अंडाणु के पारदर्शी अंडावरण (जोना पेल्युसिडा) स्तर के संपर्क में आता है और अतिरिक्त शुक्राणुओं के प्रवेश को रोकने हेतु उसके उक्त स्तर में बदलाव प्रेरित करता है। इस प्रकार यह सुनिश्चित हो जाता है कि एक अंडाणु को केवल एक ही शुक्राणु निषेचित कर सकता है। 
  • अग्रपिंडक का स्रवण शुक्राणु की पारदर्शी अंडावरण के माध्यम से अंडाणु के कोशिका द्रव्य (साइटोप्लाज्म) तथा प्लाज्मा भित्ति में प्रवेश करने में मदद करता है। यह द्वितीय अंडक के अर्धसूत्री विभाजन को प्रेरित करता है। दूसरा अध 'सूत्री विभाजन भी असमान होता है और इसके फलस्वरूप द्वितीय ध्रुवीय पिंड (सेकेंडरी पोलर बॉडी) की रचना होती है और एक अगुणित अंडाणु (डिंबाणु प्रसू या ऊओटिड) बनता है। शीघ्र ही शुक्राणु का अंडाणु के अगुणित केंद्रक के साथ संलयन (फ्युजन) होता हैजिससे कि द्विगुणित युग्मनज (जाइगोट) की रचना होती है।  
  • स्त्री में गुणसूत्र का स्वरूप XX है तथा पुरुष में XY होता है। इसलिए स्त्री द्वारा उत्पादित सभी अगुणित युग्मकों (अंडाणु) में लिंग गुणसूत्र होते हैं जबकि पुरुष युग्मकों (शुक्राणुओं) में लिंग गुणसूत्र या तो या लिंग गुणसूत्र होते हैं। इसलिए 50 प्रतिशत शुक्राणु में लिंग गुणसूत्र होते हैं और दूसरे 50 प्रतिशत शुक्राणु में लिंग गुणसूत्र होते हैं। इसलिए पुरूष एवं स्त्री युग्मकों के संलयन के पश्चात् युग्मनज में या तो XX या XY लिंग गुणसूत्र की संभावना होगी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि या लिंग गुणसूत्र वाले शुक्राणुओं में से कौन अंडाणु का निषेचन करता है। 
  • जिस युग्मनज में XX गुणसूत्र होंगे वह एक मादा शिशु (लड़की) के रूप में जबकि XY गुणसूत्र वाला युग्मनज नर शिशु (लड़का) के रूप में विकसित होगा। । इसी कारण कहा जाता है कि वैज्ञानिक रूप से यह कहना सत्य है कि एक शिशु के लिंग का निर्धारण उसके पिता द्वारा होता है न कि माता के द्वारा। 
  • समसूत्री विभाजन (विदलन / क्लीवेज) की शुरूआत तब हो जाती है जबकि युग्मनज अंडवाहिनी के संकीर्ण पथ (इस्थमस) से गर्भाशय की ओर बढ़ता है  और तब यह 2, 4, 8, 16 संतति कोशिकाओंजिसे कोरकखंड (ब्लास्टोमीयर्स) कहते हैंकी रचना करता है। 8 से 16 कोरकखंडों वाले भ्रूण को तूतक (मोरूला) कहते हैं । 
  • यह तूतक लगातार विभाजित होता रहता है और जैसे-जैसे यह गर्भाशय की ओर बढ़ता हैयह कोरकपुटी (ब्लास्टोसिस्ट) के रूप में परिवर्तित हो जाता है । एक कोरकपुटी में कोरकखंड बाहरी परत में व्यवस्थित होते हैं जिसे पोषकोरक (ट्रोफोब्लास्ट) कहते हैं। कोशिकाओं के भीतरी समूहजो पोषकोरक से जुड़े होते हैंउन्हें अंतर कोशिका समूह (इनर सेलमास) कहते हैं। अब पोषकोरक स्तर गर्भाशय अंतःस्तर से संलग्न हो जाता है और अन्तर कोशिका समूह भ्रूण के रूप में अलग-अलग या विभेदित हो जाता है। संलग्न होने के बाद गर्भाशयी कोशिकाएँ तेजी से विभक्त होती हैं और कोरकपुटी को आवृत्त कर लेती हैं। इसके परिणामस्वरूप कोरकपुटी गर्भाशय-अंतः स्तर में अन्तःस्थापित (इंबेडेड) हो जाती है । इसे ही अंतर्रोपण (इम्प्लांटेशन) कहते हैं और बाद में यह सगर्भता का रूप धारण कर लेती है।

 

सगर्भता तथा भ्रूणीय परिवर्धन  PREGNANCY AND EMBRYONIC DEVELOPMENT

  • भ्रूण के अंतर्रोपण के पश्चात् पोषकोरक पर अंगुली-जैसी संरचनाएँ उभरती हैंजिन्हें जरायु अंकुरक (कोरिऑनिक विलाई) कहते हैं। ये जरायु अंकुरक गर्भाशयी ऊतक और मातृ रक्त से आच्छादित होते हैं। जरायु अंकुरक और गर्भाशयी ऊतक एक दूसरे के साथ अंतरांगुलियुक्त (इंटरडिजिटेटेड) हो जाते हैं तथा संयुक्त रूप से परिवर्धनशील भ्रूण (गर्भ) और मातृ शरीर के साथ एक संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई को गठित करते हैंजिन्हें अपरा (प्लैसेंटा) कहा जाता है  
  • अपराभ्रूण को ऑक्सीजन तथा पोषण की आपूर्ति एवं कार्बन डाइऑक्साइड तथा भ्रूण द्वारा उत्पन्न उत्सर्जी (एक्सक्रीटरी) अवशिष्ट पदार्थों को बाहर निकालने का कार्य करता है। यह अपरा एक नाभि रज्जु (अम्बिलिकल कॉर्ड) द्वारा भ्रूण से जुड़ा होता हैजो भ्रूण तक सभी आवश्यक पदार्थों को अंदर लाने तथा बाहर ले जाने के कार्य में मदद करता है। 
  • अपराअंतःस्रावी ऊतकों का भी कार्य करता है और अनेकों हॉर्मोन जैसे कि मानव जरायु गोनैडोट्रॉपिन (ह्यूमन कोरिऑनिक गोनैडोट्रॉपिन एच सी जी)मानव अपरा लैक्टोजन (ह्यूमन प्लेसेंटल लैक्टोजन - एच पी एल)ऐस्ट्रोजनप्रोजेस्टोजनआदि उत्पादित करता है। सगर्भता के उत्तरार्ध की अवधि में अंडाशय द्वारा रिलैक्सिन नामक एक हॉर्मोन भी स्रवित किया जाता है। हमें यह याद रखना चाहिए कि एच सी जीएच पी एल और रिलैक्सिन स्त्री में केवल सगर्भता की स्थिति में ही उत्पादित होते हैं। इसके अलावा दूसरे हॉर्मोनोंजैसे ऐस्ट्रोजनप्रोजेस्टोजनकॉर्टिसॉलप्रोलैक्टिनथाइरॉक्सिनआदि की भी मात्रा सगर्भता के दौरान माता के रक्त में कई गुणा बढ़ जाती है। इन हॉर्मोनों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी होना भी भ्रूण वृद्धिमाता की उपापचयी क्रियाओं में परिवर्तनों तथा सगर्भता को बनाए रखने के लिए आवश्यक होता है। 
  • अंतर्रोपण के तुरंत बाद अन्तर कोशिका समूह (भ्रूण) बाह्यत्वचा (एक्टोडर्म) नामक एक बाहरी स्तर और अंतस्त्वचा (एंडोडर्म) नामक एक भीतरी स्तर में विभेदित हो जाता है। इस बाह्य त्वचा और अंतस्त्वचा के बीच जल्द ही मध्यजनस्तर (मेजोडर्म) प्रकट होता है। ये तीनों ही स्तर वयस्कों में सभी ऊतकों (अंगों) का निर्माण करते हैं। इस अन्तर कोशिका समूह में कुछ निश्चित तरह की कोशिकाएँजिन्हें स्टेम कोशिकाएँ (स्टेम सेल्स) कहते हैंसमाहित रहती हैजिनमें यह क्षमता होती है कि वे सभी अंगों एवं ऊतकों को उत्पन्न कर सकती हैं।

 

सगर्भता के विभिन्न महीनों में भ्रूण परिवर्धन के प्रमुख लक्षण क्या होते हैं

  • मानव में सगर्भता की अवधि 9 महीने की होती है। मानव में एक महीने की सर्गभता के बाद भ्रूण का हृदय निर्मित होता है। एक बढ़ते हुए भ्रूण का पहला संकेत स्टेथोस्कोप से उसके हृदय की धड़कनों को ध्यानपूर्वक सुना जा सकता है। सगर्भता के दूसरे माह के अन्त तक भ्रूण के पाद और अंगुलियाँ विकसित होती हैं। 12वें सप्ताह (पहली तिमाही) के अन्त तकलगभग सभी प्रमुख अंग-तंत्रों की रचना हो जाती है. 
  • उदाहरण के लिए पाद एवं बाह्य जनन अंग अच्छी तरह विकसित हो जाते हैं। गर्भावस्था के पाचवें माह के दौरान गर्भ की पहली गतिशीलता और सिर पर बालों का उग आना सामान्यतः देखा जा सकता है। लगभग 24 वें सप्ताह के अन्त तक (दूसरी तिमाही के  अंत में)पूरे शरीर पर कोमल बाल निकल आते हैंआँखों की पलकें अलग-अलग हो जाती हैं और बरौनियाँ बन जाती हैं। गर्भावस्था के 9 वें माह के अन्त तक गर्भ पूर्ण रूप से विकसित हो जाता है और प्रसव के लिए तैयार हो जाता है।

 

प्रसव एवं दुग्धस्रवण 

  • मानव में सगर्भता की औसत अवधि लगभग 9.5 माह होती है जिसे गर्भावधि (जेस्टेशन पीरियड) कहते हैं। सगर्भता के अंत में गर्भाशय के जोरदार संकुचनों के कारण गर्भ बाहर निकल आता है। गर्भ के बाहर निकलने की इस क्रिया को शिशु-जन्म या प्रसव (पारट्युरिशन) कहा जाता है। 
  • प्रसव एक जटिल तंत्रिअंतःस्रावी (न्यूरोइन्डोक्राइन) क्रियाविधि द्वारा प्रेरित होता है। प्रसव के लिए संकेत पूर्णविकसित गर्भ एवं अपरा से उत्पन्न होते हैं जो हल्के (माइल्ड) गर्भाशय संकुचनों को प्रेरित करते हैं जिन्हें गर्भ उत्क्षेपन प्रतिवर्त (फीटल इजेक्शन रेफलेक्स) कहते हैं। यह मातृ पीयूष ग्रंथि से ऑक्सीटोसिन के निकलने की क्रिया को सक्रिय बनाती है। ऑक्सीटोसिन गर्भाशय पेशी पर कार्य करता है और इसके कारण जोर-जोर से गर्भाशय सकुंचन होने लगते हैं। 
  • गर्भाशय संकुचन ऑक्सीटोसिन के अधिक स्रवण को उद्दीपित करता है। गर्भाशय संकुचनों तथा ऑक्सीटोसिन स्राव के बीच लगातार उद्दीपक प्रतिवर्त के कारण यह संकुचन तीव्र से तीव्रतर होता जाता है। इससे शिशुमाँ के गर्भाशय से जनन नाल द्वारा बाहर आ जाता है यानी प्रसव सम्पन्न हो जाता है। शिशु के जन्म के तुरन्त बाद ही अपरा भी गर्भाशय से बाहर निकल जाता है। 
  • स्त्री की स्तन ग्रंथियों में सगर्भता के दौरान कई प्रकार के बदलाव आते हैं और सगर्भता के अंत तक इनसे दूध उत्पन्न होने लगता है। इस प्रक्रिया को दुग्धस्रवण (लैक्टेशन) कहते हैं। यह माँ को अपने नवजात शिशु की आहार पूर्ति कराने में मदद देता है। दुग्धस्रवण के आरंभिक कुछ दिनों तक जो दूध निकलता है उसे प्रथम स्तन्य या खीस (कोलोस्ट्रम) कहते हैंजिसमें कई प्रकार के प्रतिरक्षी (एंटीबॉडी) तत्व समाहित होते हैं जो नवजात शिशु में प्रतिरोधी क्षमता उत्पन्न करने के लिए परम आवश्यक होते हैं। एक स्वस्थ शिशु की वृद्धि एवं विकास के लिए प्रसव के बाद आरंभ के कुछ माह तक शिशु को स्तनपान कराने की सलाह डॉक्टर देते हैं।

 

Human reproductive Fact in Hindi 

  • मानव लैंगिक रूप से जनन करने वाला एवं सजीवप्रजक या जरायुज (वीवीपेरस) है। 
  • इसके पुरुष जनन तंत्र में एक जोड़ा वृषणनर लिंग सहायक नलिकाएँसहायक ग्रंथियाँ और बाह्य जननेंद्रिय शामिल होते हैं। प्रत्येक वृषण में लगभग 250 कक्ष होते हैं और इन्हें वृषण पालिका कहते हैं।
  • प्रत्येक वृषण पालिका में एक से लेकर तीन तक उच्च कुंडलित शुक्रजनक नलिकाएँ होती हैं। प्रत्येक शुक्रजनक नलिका की भीतरी सतह शुक्राणुजनों और सर्टोली कोशिकाओं से स्तरित होती हैं।
  • शुक्राणुजनों में अर्धसूत्री विभाजन के फलस्वरूप शुक्राणु का निर्माण होता हैजबकि सर्टोली कोशिकाएँ विभाजित होने वाली जर्म कोशिकाओं को पोषण प्रदान करती हैं। 
  • शुक्रजनक नलिकाओं के बाहर लीडिग कोशिकाएँवृषण हॉर्मोन (एंड्रोजेन) का संश्लेषण और स्रवण करती हैं। 
  • पुरुष के बाहरी जननेन्द्रिय को शिश्न कहा जाता है। 
  • स्त्री जनन तंत्र के अंतर्गत एक जोड़ा अंडाशयएक जोड़ा अंडवाहिनीएक गर्भाशयएक योनिबाह्य जननेन्द्रिय और एक जोड़ा स्तन ग्रंथियाँ होती हैं। अंडाशय से मादा युग्मक (अंडाणु) तथा कुछ स्टेरॉयड हार्मोन (अंडाशयी हार्मोन) पैदा होते हैं। अंडाशयी पुटक अपने परिवर्धन के विभिन्न चरणों में पीठिका (स्ट्रोमा) में अन्तःस्थापित होते हैं। 
  • अंडवाहिनीगर्भाशय और योनिस्त्री की सहायक जनन नलिकाएँ हैं। गर्भाशय की दीवार में तीन स्तर होते हैं जिन्हें परिगर्भाशय स्तरगर्भाशय पेशीस्तर और गर्भाशय अंतःस्तर कहते हैं। 
  • स्त्री के बाह्य जननेंद्रिय के अंतर्गत जघन शैलवृहद् भगोष्ठलघु भगोष्ठयोनिच्छद और भगशेफ़ शामिल हैं। स्त्री की स्तन ग्रंथियाँ उसकी एक गौण लैंगिक अभिलक्षण हैं। 
  • शुक्राणुजनन के कारण शुक्राणु का निर्माण होता है जो पुरुष लिंग की सहायक नलिकाओं द्वारा वाहित किए जाते हैं। एक सामान्य मानव शुक्राणु में एक शीर्षग्रीवामध्यखंड और एक पूँछ होती है। एक परिपक्व स्त्री युग्मक के निर्माण की प्रक्रिया अंडजनन कहलाती है। 
  • मादा प्राइमेटों के जनन चक्र को आर्तव चक्र कहते हैं। आर्तव चक्र की शुरूआत स्त्री के लैंगिक रूप से परिपक्व होने (यौवनारंभ) पर ही होती है। प्रति आर्तव चक्र में अंडोत्सर्ग के दौरान केवल एक अंडाणु मोचित होता है। आर्तव चक्र के दौरान अंडाशय तथा गर्भाशय में चक्रीय परिवर्तन पीयूषग्रंथि तथा अंडाशयी हॉर्मोनों के स्तर में बदलाव से प्रेरित होता है। 
  • मैथुन के अंत में शुक्राणु योनि से स्वयं संकीर्ण पथ तथा तुंबिका की ओर वाहित होते हैं। यहाँ शुक्राणुअंडाणु का निषेचन करता है और उसके पश्चात् द्विगुणित युग्मनज की रचना होती है। शुक्राणु में मौजूद या गुणसूत्र के कारण भ्रूण का लिंग निर्धारित होता है। 
  • युग्मनज में लगातार समसूत्री विभाजन होता है जिससे कि कोरकपुटी का निर्माण होता है। यह कोरकपुटी गर्भाशय की भित्ति में अंतर्रोपित हो जाती है जिसके फलस्वरूप गर्भधारण होता है। नौ महीने तक गर्भधारण के पश्चात् गर्भ पूर्णरूप से विकसित और प्रसव के लिए तैयार हो जाता है। 
  • शिशु-जन्म की प्रक्रिया को प्रसव कहा जाता हैजो एक जटिल तंत्रिअंतःस्रावी क्रियाविधि द्वारा प्रेरित होते हैं। जिसमेंकॉर्टिसॉलएस्ट्रोजन और ऑक्सीटोसिन शामिल हैंसगर्भता के दौरान स्तन ग्रंथियों में कई प्रकार के परिवर्तन होते हैं और शिशु जन्म के बाद इससे दुग्धस्रवण होता है। जन्म के बाद प्रारम्भ के कुछ महीनों तक माता द्वारा नवजात शिशु को दुग्धपान (स्तनपान) कराया जाता है।

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